: ८ : आत्म धर्म : आसो : २४९२
ऊंधा अर्थो करीने पोतानी ऊंधीद्रष्टि पोषे छे. अने रागथी ने देहादिनी क्रियाथी धर्म
थाय एम माने छे. आचार्यदेव कहे छे के एवा जीवो देहने ज आत्मा माननारा छे, ने
तेना फळमां फरी फरीने देह धारण करीने तेओ भवभ्रमण करशे. अने चैतन्यस्वरूप
आत्माने जाणीने तेमां ज जे आत्मभावना करे छे ते विदेह पदने पामे छे एटले के
अशरीरी सिद्धदशाने पामे छे. शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मानी श्रद्धा ज्ञान लीनता ते
आत्मभावना छे. ने एवी आत्मभावना ज मोक्षनुं कारण छे. आ सिवाय व्यवहार
रत्नत्रयना रागथी लाभ मानीने तेनी जे भावना करे छे तेने देहनी ज भावना छे.
आम सीधी रीते तो देहधारण करवानी भावना भले न होय, पण देहमां आत्मबुद्धि
वर्ते छे ते ज देहने धारण करवानुं कारण छे. देहना लक्षे थता रागादिनी जेने भावना छे
ते पण देहने ज आत्मा माने छे. व्यवहार रत्नत्रयना रागनी जेने भावना छे तेने
रागथी जुदा चैतन्यतत्त्वनी भावना नथी, पण रागनी अने रागना फळनी ज तेने
भावना छे, ने ते भावना ज भवनुं कारण छे. चैतन्यस्वरूप रागरहित निर्विकल्प छे
तेनी भावना ज मोक्षनुं कारण छे.
जुओ, आ काळे आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करनारा जीवो बहु ज विरल
थोडा होय छतां सत्समागमे आत्माना स्वभावनुं बहुमान करीने तेनी हा पाडनारा
जीवो तो अनेक होय छे, अने जेणे आत्मस्वभावनुं बहुमान करीने तेनी हा पाडी ते
जीवो पण अनुक्रमे आगळ वधीने सम्यग्दर्शनादि पामशे. पण जेणे पहेलेथी मार्ग ज
ऊंधो लीधो छे, सत्य सांभळतां पण तेनो विरोध करे छे, रागथी ने शरीरनी क्रियाथी
धर्म थाय एम ऊंधी मान्यताने पोषे छे एवा जीवो तो तत्त्वनो विरोध करीने
भवभ्रमणमां ज रखडे छे.
जेवुं आत्मानुं स्वरूप छे तेवुं जाणीने तेनी भावना (–श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता)
ते मोक्षनुं कारण छे. “भावना भवनाशिनी”–कई भावना? के देह हुं नहि, मन–वाणी
हुं नहि. रागादिथी पण पार हुं तो ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छुं–आवी आत्मभावना ते
भवनो नाश करनारी छे. “आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे...”
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा जेवो छे तेवो जाण्या वगर तेनी साची भावना होय नहि. जे
देहनी क्रियाओने पोतानी माने–रागने ज आत्मानुं स्वरूप माने ते तो देहने अने
रागने ज आत्मा मानीने ते देहादिनी ज भावना भावे छे, देह ते ज हुं’ एवा
अभिप्रायने लीधे ते फरी फरीने देहने ज धारण करे छे. ज्ञानी पोताना ज्ञानानंदस्वरूप
आत्माने देहादिथी भिन्न देखे छे ने ते निज आत्मस्वरूपनी ज भावना भावे छे, ते
आत्मभावना वडे मुक्ति पामे छे. आ रीते भावनाअनुसार भव–मोक्ष थाय छे.
जगतना बीजा जीवो पोतानी भावना स्वीकारे के न स्वीकारे पण पोतानी
भावनानुं फळ पोताने आवे छे. शरीरनी क्रिया साथे तेनो संबंध नथी. जुओ,
रामचंद्रजी वनवास वखते ज्यारे गुप्ति–सुगुप्ति मुनिवरोने आहारदान करे छे त्यारे त्यां
झाड उपर बेठेला जटायु पक्षीने पण भावना जागे छे, मुनि प्रत्ये भक्ति जागे छे,