Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९२ आत्म धर्म : ९ :
जातिस्मरणज्ञान थाय छे, ने मुनिवरोना चरणोदकमां पडे छे त्यां तेनुं शरीर पण सुंदर
सोना जेवुं थई जाय छे...पछी तो ते व्रतधारी श्रावक थाय छे......ने स्वर्गमां जाय छे.
अहीं तो एम बताववुं छे के कांई ते पक्षीना शरीरथी आहारदाननी क्रिया नहोती थई,
पण तेने तेना अनुमोदननी भावना करी, तो ते भावनानुं फळ आव्युं. ते तो
शुभभावनी वात छे. ए प्रमाणे जेने चिदानंद स्वरूप आत्मामां ज आत्मभावना छे ते
मुक्ति पामे छे, ने जेने रागनी तथा देहादिनी भावना छे, तेमां ज आत्मबुद्धि छे ते
जीव देहने धारण करीने जन्म–मरण करे छे. आ रीते जे जीव शुद्धात्माने जाणीने तेनी
भावना भावे छे ते शुद्धात्मदशाने पामे छे, अने जे अशुद्धआत्माने (रागादिने तथा
देहादिने) भावे छे ते अशुद्ध आत्माने ज पामे छे एटले के मिथ्याद्रष्टिपणे भवभ्रमणमां
रखडे छे. आ रीते पोतानी भावना–अनुसार भव के मोक्ष थाय छे. पण भावना श्रद्धा–
अनुसार होय छे. शुद्धज्ञानानंदस्वरूप आत्मा हुं छुं–एवी जेने शुद्धात्मानी श्रद्धा छे ते
जीव तेनी ज भावनाथी मुक्ति पामे छे, अने देह ते ज हुं–रागादि ते हुं’ एवी जेनी
मिथ्याश्रद्धा छे ते जीव ते रागादिनी ज भावनाथी भवमां रखडे छे. जेने शुद्धआत्मानी
भावना नथी तेने देहनी ज भावना छे, देहने धारण करवाना कारणोने ज ते सेवी रह्यो
छे, तेथी ते देहने ज धारण करे छे. ज्ञानी तो शुद्धआत्माने ज पोतानो जाणीने,
शुद्धात्मानुं ज सेवन करीने मुक्ति पामे छे.
आ रीते जीवनी भावना ज भव–मोक्षनुं कारण छे, ए सिवाय कर्म के गुरु ते
कोई खरेखर भव मोक्षनां कारण नथी. आम जाणीने देहादिथी भिन्न पोताना
शुद्धस्वरूपनी भावना मुमुक्षुए करवी.
।। ७४।।
जय जिनेन्द्र
ज्यां धर्मप्रसंगे भीड पडे त्यां तन–मन–
धन अर्पी देतां धर्मी झाल्यो न रहे, एने के’वुं नो
पडे के भाई! तमे आटलुं करो ने! पण संघ उपर,
धर्म उपर के साधर्मी उपर ज्यां भीडनो प्रसंग
आव्यो ने जरूर पडी त्यां धर्मात्मा पोतानी सर्व
शक्तिथी तैयार ज होय. जेम रणसंग्राममां
रजपूतनुं शौर्य छूपे नहि तेम धर्मप्रसंगमां
धर्मात्मानो उत्साह छानो न रहे. एवो सहज
धर्मप्रेम तेने होय छे.