Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्म धर्म : आसो : २४९२
अनुभूतिनी क्रिया
पर्यायमां अशुद्धता होवाछतां, शुद्धात्माना अनुभवनी रीत
भाई, ज्यारे जो त्यारे तारा अंतरमां
आवो शुद्ध आत्मा प्रकाशमान छे, एकक्षण पण
तेनो विरह नथी. जेम त्रिकाळने जाणनारा एवा
सर्वज्ञनो त्रणकाळमां कदी विरह नथी, तेम
आत्माना शुद्धस्वरूपनो कदी विरह नथी, द्रष्टि
खोलीने देख एटली ज वार छे; शुद्धनयरूपी आंख
ऊघाडीने जो, तो आत्मा शुद्धस्वरूपे प्रकाशी रह्यो
छे. आवा आत्माना अनुभवनी क्रिया अहीं
आचार्यदेवे समजावी छे. आ अनुभूतिनी क्रियामां
मोक्षमार्ग समाय छे.
शुद्धनयना विषयरूप आत्मा केवो छे ते प्रगट करे छे, समस्त परभावोथी जे
भिन्न छे, जे पोताथी समस्तप्रकारे पूर्ण छे, जेने आदि अंत नथी, जे एकरूप छे,
समस्त संकल्प विकल्पनी जाळनो ज्यां विलय थई गयो छे–आवा आत्मस्वभावने
प्रकाशमान करतो थको शुद्धनय उदय पामे छे. जुओ, आवा आत्मानी अनुभूति अने
प्रतीत ते सम्यग्दर्शन छे.
कर्मनो उदय ते तो परद्रव्यमां गयो, ने ते उदय तरफना रागादि भावो ते
परभावो छे; आवा परद्रव्य अने परभावोथी भिन्न ज्ञायकभावमात्र आत्मस्वभाव
छे, ते स्वभावने शुद्धनय प्रकाशे छे. परद्रव्यो, तेना भावो तथा तेना निमित्ते थता
रागादि विकारो ए बधाय आत्मस्वभावथी अन्य होवाथी परभावो छे; ते परभावोथी
तो जुदो; अने निजस्वभावथी परिपूर्ण,–एवो शुद्धआत्मा छे. आवा शुद्धात्मानो
अनुभव शुद्धनयवडे थाय छे. आने ज शुद्धजीवतत्त्व कहेवाय छे.
शुद्धनय पोते निर्मळपर्याय छे; ते भूतार्थ अभेद आत्माने देखे छे; तेनी साथे
अभेद करीने तेने ज शुद्धनय कही दीधो, अनादिअनंत एकरूप पारिणामिक
परमज्ञानस्वभावे वर्ततो जे भूतार्थस्वभाव, तेने अनुभवनारो ‘शुद्धनय