Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९२ आत्म धर्म : १३ :
(विकारमां तन्मय थईने) आत्माने विकारी ज अनुभवे छे. पण शुद्धनयवडे
स्वभावनी समीप जा (तेमां तन्मय थईने एकत्वबुद्धि कर) ने विकारथी दूर था–तेने
भिन्न जाण, तो शुद्धआत्मा तने अनुभवमां आवशे.
वाह, टूंकामां अनुभवनो मार्ग समजाव्यो छे! विकारने अभूतार्थ करीने ज्यां
स्वभावमां एकता करी त्यां आनंदसहित आत्मा अनुभवाय छे. ते एकान्त–बोधबीजरूप छे.
आवा स्वभावमां एकत्व करवुं ते ‘हुकमनो एक्को’ छे, कोई परभाव तेने जीती शके नहि.
भाई, तारी कायमी टकती चीज शुं छे? एकला ज्ञानआनंदथी भरेलो
एकस्वभाव ते तारी कायमी चीज छे. विकार के परनो संग ए कांई कायमी चीज नथी,
ए तो क्षणमां छूटी जनार छे; स्वभावमां वळतां ए विकार के परसंग भिन्न रही जाय
छे. माटे ते स्वभाव साथे एकमेक नथी, पण जुदा ज छे. अत्यारे पण शुद्धनयवडे ते
जुदा ज अनुभवाय छे. आवो अनुभव ते शुद्धनय छे; ते सम्यग्दर्शन छे, तेमां आत्मा
सत्यस्वरूपे प्रकाशमान छे.
भाई, ज्यारे जो त्यारे तारा अंतरमां आवो शुद्धआत्मा प्रकाशमान छे. एकक्षण
पण तेनो विरह नथी. जेम त्रिकाळने जाणनारा एवा सर्वज्ञनो त्रणकाळमां कदी विरह
नथी, तेम आत्माना शुद्धस्वरूपनो कदी विरह नथी. द्रष्टि खोलीने देख, एटली ज वार
छे शुद्धनयरूपी आंख ऊघाडीने जो, तो आत्मा शुद्ध स्वरूपे प्रकाशी रह्यो छे–
विकारीभावो ते स्वभावमां प्रवेशी गया नथी, ते तो उपर–उपर तरे छे, स्वभावथी
बहार ज रहे छे. आवा आत्माना सम्यक्स्वभावनो तमे अनुभव करो एम
आचार्यदेवनो उपदेश छे.
जेम श्रीमद्राजचंद्रजी कहे छे के–
उपजे मोह विकल्पथी समस्त आ संसार;
अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.
तेमअहीं कहे छे के–
विकारोभावो आत्माना शुद्धस्वभावथी बहार,
भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी ते अभूतार्थ थतां नहि वार.
जुओ, आ अनुभूतिनी क्रिया बतावे छे. आ क्रिया ते धर्म छे; आ अनुभूतिनी
क्रियामां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग समाय छे. – जय जिनेन्द्र
रे जीव! आवा भयंकर असह्य दुःखसमुद्रमां तने चेन नथी पडतुं तो तेमांथी
ऊछळीने बहार केम नथी नीकळी जतो! ने अंतरमां भरेला आनंदसमुद्रमां डुबकी
केम नथी मारतो! संतो तो वारंवार तने तारुं आनंदधाम बतावे छे.