अनुभूतिमां समाई ज गई. एना वगर आत्माने मान्यो ज न कहेवाय.
वस्तुमां आवुं अक्रम ने क्रमवर्तीपणुं छे.
तेनुं कर्तृत्व ज्ञानमां न रह्युं. आवी अकर्तृत्वशक्तिथी आत्मा रागना अकर्तापणे शोभी
ऊठ्यो. सम्यग्दर्शन थतां जे अनंतशक्तिसम्पन्न आत्मद्रव्य प्रतीतमां आव्युं तेनी साथे
तेनी आवी अकर्तृत्वशक्ति पण प्रतीतमां आवी, एटले रागनुं अकर्तापणुं प्रगट्युं.–
आवुं अकर्तृत्वशक्तिनुं कार्य छे. सम्यग्दर्शन थतां बधाय गुणो स्वकार्यने करे छे,
निर्मळपणे परिणमन शरू थाय छे.
कर्तृत्व रह्युं नथी, रागना अकर्तारूप परिणमन थयुं छे. आत्माना स्वभावनी द्रष्टि थतां
आवा अकर्तृत्वरूप निर्मळपर्यायनो क्रम शरू थयो ते द्रष्टिनुं फळ छे. रागनुं कर्तृत्व
आत्माना कोई गुणमां नथी एटले आत्मानी प्रतीत थतां कोई गुणमां रागना
कर्तृत्वरूप परिणमन रहेतुं नथी. रागनुं ज्ञान भले रहे पण तेनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी.
द्रव्य–गुणमां जे अकर्तृत्व हतुं ते अकर्तृत्व (स्वभावद्रष्टि थतां) पर्यायमां पण व्यापी
गयुं, एटले पर्याय पण रागना अकर्तृत्वरूप थईने परिणमी. आ रीते, धर्मीने राग
वखतेय अकर्तृत्वशक्ति ‘रागना कर्तृत्वथी उपरामरूपे’ परिणमी रही छे, रागना
अभावरूपे पोते परिणमे छे. आनुं नाम ‘ज्ञान आस्रवोथी निवर्त्युं’ एम कहेवाय छे.
आवुं कार्य थाय त्यारे अकर्तृत्व