Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्म धर्म : आसो : २४९२
शक्तिवाळा आत्माने जाण्यो ने अनुभव्यो कहेवाय. त्यां धर्मीने व्यवहाररत्नत्रयना
रागनुं य कर्तृत्व के स्वामीत्व रहेतुं नथी. ते–ते काळना व्यवहारने जाणे छे पण तेनो ते
स्वामी थतो नथी. रागरूप व्यवहार छे तेनो अकर्ता थयो त्यारे तेना व्यवहारने
व्यवहार कह्यो.
आमां स्व–स्वामीत्वशक्तिनुं पण निर्मळकार्य आवी गयुं. द्रव्यद्रष्टि थतां पोतानी
निर्मळपर्यायना स्वामीत्वपणे ज परिणम्यो ने रागादिना स्वामीत्वपणे न परिणम्यो,–
आवुं स्वस्वामीत्वसंबंध–शक्तिनुं कार्य प्रगट्युं.
आवा आत्माना स्वभावमां जे आव्यो ते परभावथी निवृत्त थयो, केमके
परभावनुं कर्तृत्व आत्माना स्वभावमां नथी. आत्माना अकर्तृत्वस्वभावने जाणे ने
रागनुं कर्तृत्व रहे एम बने नहि. स्वभावने जाणतां पर्याय ते तरफ वळे एटले रागादि
परभावोथी निवृत्ति थाय ज. पर्याय अंतर्मुख थईने आत्माने जाणे ने परभावोथी
निवृत्ति न थाय एम बने ज नहि. स्वभावने जाणतां ज रागनुं कर्तृत्व छूटी जाय छे ने
ज्ञान पोताना स्वभावमां वळी जाय छे एटले निर्मळ ज्ञान–आनंदनी पर्यायो प्रगटे
छे.–आवुं भेदज्ञाननुं फळ छे.
आमां अकारणकार्यत्वशक्तिनुं निर्मळ कार्य पण आवी गयुं. अंतरस्वभावनी
द्रष्टिथी जे निर्मळपर्याय प्रगटी तेणे आखा आत्माने अकारणकार्यस्वरूप जाण्यो, एटले
पर्यायमांथी पण रागनुं कारणपणुं छूटी गयुं; तथा ते निर्मळपर्याय पोते रागनुं कार्य
पण नथी; रागने कारण बनावीने निर्मळपर्यायरूप कार्य थयुं–एम नथी. आ रीते एक
आत्मस्वभावनी प्रतीति अने अनुभूतिमां तेना सर्वे गुणोना निर्मळकार्यनी प्रतीत
भेगी समाई जाय छे.
जय जिनेन्द्र