: आसो : २४९२ आत्म धर्म : १९ :
गत भादरवा वद चोथे रात्रिचर्चा वखते गुरुदेवे घणी
सुख तो आत्माना ध्रुव–चिदानंद स्वभावमां छे; बहारना संयोग तो अध्रुव ने
अनित्य छे, तेमां सुख केवुं? धर्मीए पोताना स्वभावनुं सुख जोयुं छे एटले बहारमां
बधेथी तेनी द्रष्टि हटी गई छे.
मोटो पुण्यवंत राजकुमार होय, बागबगीचा वच्चे महेलमां बेठो होय, बहारनी
बधी वाते सुखी होय...पण अंदर हृदयमां विरक्त थतां माताने कहे छे के हे मा! मने
आमां क्यांये चेन पडतुं नथी...आमां क्यांय मारुं चित्त लागतुं नथी. आत्माना
आनंदमां ज्यां अमारुं चित्त लाग्युं छे त्यांथी ते खसतुं नथी, ने आमां क्यांय अमारुं
चित्त क्षणमात्र लागतुं नथी.
मा कहे छे–बेटा! आमां तने शुं खामी छे? तने कई वातनुं दुःख छे?
पुत्र कहे छे–मा! आ संयोगमां क्यांय मने चेन पडतुं नथी; मारुं चित्त तो मारा
स्वभावना आनंदमां लाग्युं छे.
अरे, अमे तो आत्मा! –के अमे ते दुःख?
–दुःख ते अमे केम होईए? अमारो आत्मा तो सुखनो सागर छे; तेमां आ
दुःख शा? आ संयोग शा?
माता! रजा आपो, अमे अमारा चैतन्यना आनंदने साधीए. आ संयोगोथी
दूर दूर अंदर अमारी स्वभावगूफामां जईने सिद्ध साथे गोष्टी करीए, ने सिद्ध जेवा
आनंदने अनु–