: २० : आत्म धर्म : आसो : २४९२
भवीए. हे जननी! आ संयोगमां क्यांय अमने चेन नथी, अमारुं चित्त तो आत्मामां
लाग्युं छे. (प्रवचनसार गाथा २०१–२०२ मां दीक्षा प्रसंगे दीक्षार्थी शरीरनी जननी
वगेरेने वैराग्यथी संबोधे छे ते वात गुरुदेवे अहीं याद करी हती...जाणे आवो कोई दीक्षा
प्रसंग नजरसमक्ष बनी रह्यो होय एवा भावो गुरुदेवना श्रीमुखथी नीकळता हता.)
–आ प्रमाणे संसारथी विरक्त थईने ए राजकुमार दीक्षा ल्ये ने अंदर लीन
थईने आत्माना आनंदने अनुभवे.–वाह, धन्य ए दशा!
बीजे दिवसे ए ज वैराग्यना फरी फरी घोलनपूर्वक प्रवचनमां पण गुरुदेवे
कह्युं:– धर्मी राजकुमार होय ने वेराग्य थतां माताने कहे के हे माताजी! आ राजमहेल ने
राणीओ, आ बागबगीचा ने खानपान ए संयोगमां क्यांय मने चेन पडतुं नथी,
एमां क्यांय मने सुख भासतुं नथी; मा! आ संसारनां दुःखो हवे सह्या जतां नथी. हवे
तो हुं मारा आनंदने साधवा जाउं छुं.–माटे तुं मने रजा आप! आ संसारथी मारो
आत्मा त्रास पाम्यो छे, फरीने हवे हुं आ संसारमां नहि आवुं. हवे तो आत्माना
पूर्णानंदने साधीने सिद्धपदमां जईशुं. माता! तुं मारी छेल्ली माता छो, बीजी माता हवे
हुं नहि करुं, बीजा माताने फरी नहि रोवडावुं. माटे आनंदथी रजा आप. मारो मार्ग
अफरगामी छे. संसारनी चार गतिना दुःखो सांभळीने तेनाथी मारो आत्मा त्रासी
गयो छे; अरे, जे दुःखो सांभळ्या पण न जाय (सांभळतांय आंसु आवे) ए ते दुःख
सह्या केम जाय? –ए दुःखोथी हवे बस थाव...बस थाव. आत्माना आनंदमां अमारुं
चित्त चोट्युं छे ते सिवाय बीजे क्यांय हवे अमारुं चित्त चोटतुं नथी. बहारना भावो
अनंतकाळ कर्या हवे अमारुं परिणमन अंदर ढळे छे अंदर ज्यां अमारो आनंद भर्यो छे
त्यां अमे जईए छीए. स्वानुभूतिथी अमारो जे आनंद अमे जाण्यो छे ते आनंदने
साधवा माटे जईए छीए.
स्वानुभूति वगर आत्माने आनंद थाय नहि. नवतत्त्वोनी गूंचमांथी शुद्धनयवडे
भूतार्थ स्वभावने जुदो पाडी, जे शुद्धात्मानी अनुभूति करी तेमां कोई विकल्पो के
भेदोरूप द्वैत देखातुं नथी, एकरूप एवो भूतार्थ आत्मस्वभाव ज अनुभूतिमां प्रकाशे
छे.–आवी अनुभूति वगर आत्माने आनंद थाय नहि.
ज्यारे आवी अनुभूति सहित राजकुमार संसारथी विरक्त थईने माता पासे रजा
मांगे, त्यारे माता पण धर्मी होय ते कहे के भाई! तुं सुखेथी जा ने तारा आत्माने साध. जे
तारो मार्ग छे ते ज अमारो मार्ग छे. अमारे पण ए ज स्वानुभूतिना मार्गे आववानुं छे.