: २२ : आत्म धर्म : आसो : २४९२
खरा स्वरूपने ते जाणतो नथी. (दुःखने वेदे छे खरो, पण तेना स्वरूपने ते जाणतो
नथी के आ दुःख शेनुं छे! सुखने तो ते वेदतोय नथी ने तेनुं स्वरूप पण जाणतो
नथी.)
जेम, आत्माना स्वरूपने जाणे तेने ज बंधना स्वरूपनुं साचुं ज्ञान थाय;
आत्माना अबंधस्वभावने अनुभव्या वगर बंधनुं पण साचुं ज्ञान न थाय. तेम
आत्माना अतीन्द्रियसुखने जे जाणे ते ज दुःखना स्वरूपने ओळखे; सुखना अनुभव
वगर दुःखनुंय साचुं ज्ञान थाय नहि.
वाह, जुओ तो खरा वस्तुस्थिति! निश्चय वगरनो व्यवहार साचो नहि–ए
रहस्य पण आमां आवी गयुं.
आत्मानो स्वभाव एवो छे के जेने जाणतां जाणनारने सुख थाय; परद्रव्यमां
एवो स्वभाव नथी. परद्रव्यमां सुख नथी ने तेने जाणतां जाणनारनेय सुख नथी.
आत्मामां सुख छे ने तेने जाणतां जाणनारने पण सुख छे.–आवो स्वभाव आत्मामां
ज छे माटे आत्मा ज ‘सार’ छे. ए वात पहेला ज कळशनी टीकामां (नम: समयसार
नो अर्थ करतां) श्री पं. राजमल्लजीए करी छे.
रे जीव! आ जराक दुःख पण ताराथी सहन थतुं नथी तो आना करतां महान
तीव्रदुःखो जेनाथी भोगववा पडे–एवा ऊंधाभावने तुं केम सेवी रह्यो छे!
जो तने दुःखनो खरो भय होय तो ते दुःखना कारणरूप एवा मिथ्यात्वादि ऊंधा
भावोने तुं शीघ्र छोड.
नबळी आंख कोनी? * आंख ऊघडी!!
बे माणसो वात करता हता.
एक माणसे कह्युं–हुं सोयमां दोरो परोवी शक्तो नथी.
बीजो माणस कहे–त्यारे तमारी आंख नबळी हशे! आंखे बराबर सूझतुं नहि
होय! हुं तो एक सेकंडमां दोरो परोवी दउं.