Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्म धर्म : आसो : २४९२
उ पा दे य – प रं प रा
जगतमां पृथक् पृथक् अनंता जीवो छे; तेना
करतां अनंतानंतगुणा पुद्गलो छे; धर्मास्ति–
अधर्मास्ति–आकाश ए प्रत्येक एकेकछे; काळना
अणु असंख्यात छे.
आवा छ द्रव्यस्वरूप लोकमां जीवद्रव्य ज
उपादेय छे.
तेमांय जो के शुद्धनिश्चयथी शक्तिअपेक्षाए
बधा जीवो उपादेय छे, तो पण व्यक्तिअपेक्षाए
पंचपरमेष्ठिी उपादेय छे.
तेमां पण विशेषपणे अरिहंत ने सिद्ध
उपादेय छे.
तेमां पण सिद्ध उपादेय छे.
अने परमार्थथी तो, मिथ्यात्व–रागादि
विभाव परिणामोनी निवृत्तिना काळे एटले के
निर्विकल्पध्यानमां स्वकीय शुद्धात्मा ज धर्मीने
उपादेय छे.
ए प्रमाणे उपादेय–परंपरा जाणवी. अने
स्वसन्मुख ध्यानवडे पोताना शुद्धात्माने उपादेय
करवो.
एम करवाथी उपरना बधा उपादेयपद
प्रगटी जाय छे.
(जुओ परमात्मप्रकाश अ. २ गा. २२ नी
टीका)