Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९२ आत्म धर्म : २९ :

परमार्थे पंचपरमेष्ठि आत्मा ज छे, आत्मानी जे निर्मळदशा तेमां ज
अरिहंतपणुं–सिद्धपणुं वगेरे समाय छे. आत्माना ध्रुव–सामर्थ्यमां अरिहंतपणुं–सिद्धपणुं
भरेलुं छे. प्रवचनसारनी ८० मी गाथामां कहे छे के अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने
ओळखतां आत्मानुं परमार्थस्वरूप जणाय छे, अने तेना दर्शनमोहनो नाश थाय छे.
अरिहंतने पर्यायमां जे कार्य प्रगट्युं तेनुं कारण आत्मामां पड्युं छे; तेनी सन्मुख थईने
तेने ध्यावतां परम आनंद प्रगटे छे. आत्मामां अरिहंतपणुं शक्तिरूपे भर्युं छे तेथी तेना
ध्यानवडे तृप्ति थाय छे. पंचपरमेष्ठीपणुं आत्माना स्वभावमां छे तेथी खरेखर आत्मा ज
सदाय शरण छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव मोक्षप्राभृत गा. १०४ मां कहे छे के–
अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए पंच–परमेष्ठी छे ते पण
आत्मामां ज स्थित छे, तेथी मने आत्मा ज शरणरूप छे. पांचे पदरूप निर्मळदशा
आत्मामांथी प्रगटे छे, क्यांय बहारथी नथी आवती. पोतामां एवी परमेष्ठी–दशा प्रगट
करीने आचार्यदेव कहे छे के प्रगटपणे आत्मा ज मारुं शरण छे...ते ज उपादेय छे.
परमात्मप्रकाशमां (अ. र. गा. २२ नी टीकामां) पण कह्युं छे के जगतना
पदार्थोमां जीव उपादेय छे, जीवोमां पंचपरमेष्ठी, पंचपरमेष्ठीमां अरिहंत अने सिद्ध,
तेमां पण सिद्ध उपादेय छे; परंतु आ बधाना लक्षे हजी विकल्प थाय छे. अंतरमां
निर्विकल्प ध्यानरूप समाधिकाळे तो पोतानो शुद्धआत्मा ज उपादेय छे. त्यां पर उपर के
पर्यायना भेद उपर लक्ष रहेतुं नथी.
आत्मा ज उत्तमपदार्थ छे, केमके तेना ज ध्यानवडे उत्तमपद प्रगटे छे.
अहीं पण योगसार गा. १०४ मां कहे छे के–
निश्चयथी आत्मा ज अर्हन्त छे, आत्मा ज सिद्ध छे, आत्मा ज आचार्य छे,
आत्मा ज उपाध्याय छे तथा आत्मा ज मुनि छे. ए पांच पदरूप पवित्रदशा आत्मामां
ज छे. तेथी आत्मानुं शरण करतां ते दशा प्रगटी जाय छे. बहारमां पंच परमेष्ठीनुं
शरण कहेवुं के तेमने उपादेय कहेवा ते व्यवहार छे, व्यवहारथी ते पूज्य छे, पण
निश्चयथी तो पोतानो शुद्ध आत्मा ज शरणरूप ने उपादेय छे; के जेने उपादेय करतां
केवळज्ञान अने सिद्धपद एकक्षणमां प्रगटी जाय छे.