Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 33 of 45

background image
: ३० : आत्म धर्म : आसो : २४९२
सन्तो कहे छे के भाई! तुं अल्प नथी–नानो नथी पण मोटो छो, सर्वज्ञ जेवडो
तुं छो; सिद्धपणानुं सामर्थ्य तारामां भर्युं छे, अनंतचतुष्टयनो भंडार तारा सामर्थ्यमां
भर्यो छे.–आवा स्वरूपे आत्माने चिन्तवतां ध्यानमां जे परम तृप्ति ने आनंद
अनुभवाय छे ते अंदरना भूतार्थ–सत्यस्वभावने लीधे ज अनुभवाय छे. अत्यारे पण
आत्माने शुद्धचिन्तववो ए कांई कल्पना नथी पण यथार्थ छे.
भाई, तारा सत्स्वभावनो भरोसो करीने तेनुं ध्यान कर. अंदर स्वभावमां
सिद्धपणुं छे ते सत् छे, ते सत्नुं ध्यान आनंद उपजावे छे. आत्माना स्वरूपने ध्यावतां
रत्नत्रयरूप परिणमीने पोते ज साधक (आचार्य–उपाध्याय–साधु) थाय छे, ने
केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टय प्रगट करीने पोते ज अर्हंत ने सिद्ध थाय छे. आत्मानुं
स्वरूप ज आवुं छे. तेमां उपयोग मुकतां सहेजे निर्विकल्पता थई जाय छे–एवो ज
स्वभाव छे. माटे स्वसन्मुख थईने तारा शुद्ध आत्माने तुं उपादेय कर एवो उपदेश छे.
• • • • •
चारित्रदशा कोने होय?
पुरुषार्थसिद्धिउपायमां श्री अमृतचंद्रस्वामी कहे छे के–
विगलित दर्शनमोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थैः।
नित्यमपि निःप्रकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्ब्यम।।३७।।
जेमणे दर्शनमोहने नष्ट कर्यो छे, जेमणे सम्यग्ज्ञान वडे तत्त्वार्थने विदित कर्यो छे अने
जेओ सदाकाळ अकंप द्रढचित्त छे एवा पुरुषोद्वारा सम्यक् चारित्र अवलम्बन करवायोग्य छे.
भावार्थ:– सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति पछी सम्यक्चारित्र अंगीकार करवुं जोईए
न हि सम्यक्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते।
ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात्।।३८।।
अज्ञानपूर्वक जे चारित्र होय ते सम्यक् कहेवातुं नथी, तेथी चारित्रनुं आराधन
सम्यग्ज्ञाननी पछी कह्युं छे.
भावार्थ:– जो पहेलां सम्यग्ज्ञान न होय, ने तेना विना पापक्रियानो त्याग करीने
चारित्रभार धारण करे तो ते चारित्रने साचुं चारित्र कहेवातुं नथी; जेम अजाणी औषधिना
सेवनथी मरणनो संभव छे तेम ज्ञान वगरना चारित्रथी संसारनी वृद्धिनो संभव छे. जेम
जीव वगरना मृतक शरीरमां रहेल ईन्द्रियोनो आकार निष्प्रयोजन छे तेम सम्यग्ज्ञान वगर
शरीरनो वेष के क्रियाकांड साधन ते शुद्धोपयोगनी प्राप्तिना साधन थई शक्तां नथी.