: २ : आत्म धर्म : आसो : २४९२
(१) पहेलो उत्तमक्षमाधर्म छे–
उत्तमक्षमाभावरूपे परिणमेला मुनिवरो रौद्र–भयानक उपसर्ग थवा छतां
क्षमाथी च्युत थता नथी ने क्रोधाग्निथी तप्त थता नथी, तेमने निर्मळ क्षमा छे. शास्त्रमां
तेना घणा दाखला आप्या छे. सुकुमारमुनि, गजकुमारमुनि, कार्तिकेयमुनि वगेरे
मुनिवरोए घोर उपसर्ग प्रसंगे क्रोध कर्या वगर, क्षमाधर्मनी आराधना करी ने स्वर्ग–
मोक्षना उत्तमपदने पाम्या. सुदर्शन श्रावक वगेरे श्रावकोए पण उपसर्ग प्रसंगे
क्षमाभाव धारण कर्या ते श्रावकनी उत्तम क्षमा छे.
क्षमाधर्म परम शांतिनो देनार छे, ने क्रोध दुःखदायी छे. प्राण जाय एवो उपसर्ग
आवे तो पण धर्मी जीवो पोताना धर्मने छोडता नथी. क्रोधनुं निमित्त आवतां एम
विचारवुं के जो कोई मारा दोष कहे छे, ते दोष जो मारामां होय–तो तेणे शुं खोटुं कह्युं?
अने जो मारामां न होय एवो दोष कोईए कह्यो तो ते तो तेनुं अज्ञान छे, जाण्या
विना अज्ञानथी ते कहे छे, एटले एना उपर क्रोध शो? ए तो अज्ञानीनो एवो
बालस्वभाव छे एम जाणी क्षमाभाव राखे. कोई दुष्ट वचन कहे, निंदा करे, मारे के
प्राणघात करे, तो पण मारा धर्मनो ध्वंस करवा कोई समर्थ नथी. बहारनी निंदा–
प्रशंसा तो पूर्वकर्मना उदय अनुसार बने छे. धर्मी तेनाथी पोताने भिन्न जाणे छे.
क्षमाथी खसीने हुं क्रोध करुं तो मारा धर्मनो ध्वंस थाय, बीजो तो मारा धर्मनो ध्वंस
करवा समर्थ नथी, ने हुं मारा क्षमाधर्मथी खसतो नथी, पछी क्रोध रह्यो ज क्यां?
खरेखर तो क्रोध वगरनो मारो स्वभाव ज छे. मारा उपयोगस्वभावमां क्रोध नथी,–
आवा स्वभावनी भावनामां लीन थतां क्रोधनी उत्पत्ति ज थती नथी.–एनुं नाम
उत्तमक्षमाधर्मनी उपासना छे. ने आवी क्षमा ते साधकने मोक्षनी सहचरी छे.
(२) मार्दवधर्मनुं स्वरूप
दसलक्षणपर्वमां आजे बीजो मार्दवधर्मनो दिवस छे. मार्दव एटले निर्मानता,
उत्तम निर्मानता कोने होय? मुनिओने उत्तम मार्दवरूप धर्मरत्न होय छे. ते मुनि उत्तम
ज्ञान अने उत्तम तपश्चरण सहित होय छे तो पण ते पोताना आत्माने मदरहित राखे
छे, ज्ञाननुं के तपनुं अभिमान थतुं नथी. अहो, क्यां केवळज्ञाननी अचिंत्य ताकात! ने
क्यां आ शास्त्रज्ञान! ए तो केवळज्ञानना अनंतमा भागनुं छे. भले १२ अंगनो उघाड
होय तोपण केवळज्ञान पासे तो ते तरणां समान छे, अनंतमा भागनुं छे.–आम
धर्मात्मा मुनिओने विनयरूप निर्मानपरिणति होय छे.
अहो, धन्यमुनिनी निर्मान दशा! स्वभावनी अधिकता पासे बीजानी अधिकता
भासती नथी तेथी बीजानुं अभिमान थतुं नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी जेम आ
उत्तम क्षमा, मार्दव वगेरे धर्मो छे ते पण रत्न छे. आवी अनंती निर्मळपर्यायरूप उत्तम
रत्नोनो भंडार आत्मा छे एटले आत्मा चैतन्य–रत्नाकर छे. आवा आत्माने जे
अनुभवे तेने कोई बीजावडे पोतानी महत्ता लागती नथी, एटले अन्य पदार्थोनुं