: आसो : २४९२ आत्म धर्म : ३ :
अभिमान थतुं नथी, तेमज पर्यायमां ज्ञानादिनो कांईक विशेष उघाड होय तेनुं पण
अभिमान थतुं नथी. पूर्ण स्वभावनी भावनावडे ते पूर्णताने ज साधवा मागे छे.
(३) उत्तम आर्जव (सरळता) धर्मनुं स्वरूप
दशलक्षण धर्ममां त्रीजो आर्जवधर्म छे. आर्जव एटले सरळता, रत्नत्रयधर्मनी
आराधनामां तत्पर मुनिराज मनथी वचनथी के कायाथी वक्रता करता नथी. पोताना
दोषोने छुपावता नथी, सरळपणे दोषनुं आलोचन करीने छोडे छे, तेमने उत्तम
आर्जवधर्म होय छे. तेओ बाळक जेवा सरळ होय छे.
अहीं एकला मन–वचन–कायाना लक्षे सरळता राखे तेनी वात नथी, ते तो
शुभ कर्मना बंधनुं कारण छे. ने अहीं तो संवरना कारणरूप आर्जवधर्मनुं वर्णन छे.
मन–वचन–कायानी क्रियाओथी पार जे सहज ज्ञानानंदस्वभाव, तेमां मायाचार वगेरे
वक्रतानो अभाव छे, एवा स्वभावनी आराधना वडे मिथ्यात्वनो अभाव तथा
वक्रपरिणामनो अभाव ते उत्तम सरळता छे, ते संवरधर्म छे. ज्यां निर्मानता होय त्यां
ज आवी उत्तम सरळता होई शके. गुरु पासे मारा दोष प्रगट करीश तो मारुं मान घटी
जशे–एम जो मान होय तो ते दोष प्रगट करवामां सरळता करी शके नहि, तेने मान के
मायाचार थाय. अहो, मुनिवरो रत्नत्रयधर्मना आराधक, तेमां जरा पण दोष लागी
जाय तो ते सहन थई शके नहि, तरत सरळपणे ते दोष प्रगट करीने तेने छेदी नांखे छे
ने रत्नत्रयनी शुद्धि प्रगट करे छे. एवा मुनिओने उत्तम सरळता होय छे. तेने
अनुसरीने जिज्ञासुने पण पोताना परिणाममां सरळता होय.
(४) उत्तम शौचधर्मनुं स्वरूप
दशलक्षणधर्ममां चोथो उत्तम शौचधर्म छे. शौच एटले पवित्रता, अथवा
निर्लोभता; चैतन्यतत्त्वना अतीन्द्रिय आनंदना अनुभव वडे लोभरहित एवा निर्मळ
परिणाम थाय के बाह्यविषयोनी चाहना न रहे, सोनुं हो के तरणुं हो, शत्रु हो के मित्र
हो, रसवान आहार हो के नीरस हो,–एमां समभाव थाय, परम आनंदना
अनुभवरूप जळवडे तृष्णारूप मलिनताने धोई नांखे, अशुची परिणामने धोईने
शुचीरूप परिणाम थाय तेनुं नाम उत्तम शौचधर्म छे. परमां सुख माने तेने परनी
तृष्णा टळे नहि ने संतोषरूप शौच थाय नहि. स्वद्रव्यना आनंदमां जेने तृप्ति थई छे
तेने ज परनी तृष्णा मटे छे. तेने देहना जीवननोय लोभ नथी. हुं तो मारा आनंद अने
चैतन्य वडे जीवनार छुं त्यां बीजा जीवतरनो लोभ शो? माराथी ज हुं तृप्त भरपूर–
भरेलो छुं त्यां बीजानी तृष्णा शी? आवा निर्मळ चित्तवडे रागद्वेषरहित परिणाम थाय
तेनुं नाम शौचधर्म छे. सम्यग्दर्शनवडे चित्तनी निर्मळता थया वगर शौचधर्म होय नहि.
पर पदार्थनी चाहनारूप जे मेल, तेने स्वानुभवना संतोषरूप पवित्र जळ वडे धोई