Atmadharma magazine - Ank 277
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : कारतक : २४९३
–आ प्रमाणे महा धीर–वीर ए वज्रनाभिमुनिराजे तीर्थंकरत्वनी प्राप्तिना
कारणरूप आ १६ भावनाओनुं घणा काळ सुधी चिन्तन कर्युं; अने उत्तम प्रकारे ए
भावनाओना चिन्तन वडे ते श्रेष्ठ मुनिराजे त्रणलोकमां क्षोभ उत्पन्न करनारी तीर्थंकर
नामनी महापुण्यप्रकृति बांधी. एवा ते भावि तीर्थंकरने नमस्कार हो.
तीर्थंकर प्रकृति बांधवानी साथे साथे ते मुनिराज ज्ञाननी अनेक प्रकारनी ऋद्धि
पण पाम्या हता, ने ते ऋद्धिवडे तेमणे पोताना परभवोने जाणी लीधा हता. बीजी पण
अनेक महान ऋद्धिओ तेमने प्रगटी हती. परंतु उत्तमबुद्धिमान ते मुनिराजने तो
गौरवपूर्ण एवा एक सिद्धपदनी ज वांछा हती. लौकिकऋद्धिओनी तेमने जरापण वांछा
न होवा छतां अणिमा–महिमा वगेरे अनेक ऋद्धिओ तेमने प्रगटी हती. वगर ईच्छाए
जगतनुं हित करनारी एवी अनेकविध औषधिऋद्धि पण तेमने प्रगटी हती, –खरूं ज
छे, कल्पवृक्ष उपर लागेला फळ कोनो उपकार न करे? ते मुनिराजने जो के घी–दूध वगेरे
रसोनो त्याग हतो तोपण घी–दूधने झरावनारी अनेकविध रसऋद्धि तेमने प्रगटी
हती;–ए योग्य ज छे, ईष्ट पदार्थोनो त्याग करवाथी तेना करतां य अधिक महान
फळनी प्राप्ति थाय छे. बलऋद्धिना प्रभावथी गमे तेवा कठण गरमी–ठंडीना परिषहोने
पण ते सही लेता हता, तेमने एवी अक्षीणऋद्धि प्रगटी हती के, जे दिवसे जे घरमां
तेमणे भोजन कर्युं होय ते दिवसे ते घरमां भोजन अक्षय थई जतुं, एटले चक्रवर्तीना
सैन्यने भोजन कराववा छतां पण ते भोजन खूटतुं नहि.–एमां शुं आश्चर्य छे!
मुनिओनुं महान तप तो अक्षय एवा मोक्षफळने आपे छे.
आ प्रमाणे, विशुद्धभावनाओने धारण करनार ते वज्रनाभिमुनिराज पोताना
विशुद्धपरिणामोथी उत्तरोत्तर विशुद्ध थतां थतां उपशमश्रेणी पर आरूढ थया. अधःकरण
पछी तेओ आठमा गुणस्थाने अपूर्वकरण करीने नवमा अनिवृत्तिकरण–गुणस्थानने
पाम्या, त्यारपछी ज्यां अत्यंत सूक्ष्म राग बाकी रह्यो छे एवा सूक्ष्मसांपराय नामना
दशमा गुणस्थाने आव्या, अने पछी उपशान्तमोह नामना वीतरागीगुणस्थाने आव्या.
अहीं अगियारमां गुणस्थाने मोहकर्म संपूर्ण उपशान्त थयुं हतुं अने अतिशय विशुद्ध
एवुं औपशमिकचारित्र प्रगट थयुं हतुं. अंतर्मुहूर्त पछी ते मुनिराज फरीने स्वस्थानरूप
सातमा अप्रमत्तगुणस्थाने आव्या; एनुं खास कारण ए छे के अगियारमां गुणस्थाने
आत्मानी स्वाभाविक स्थिति अंर्तमुहूर्त करतां वधु होती ज नथी.
ए वज्रनाभिमुनिराजे आयुष्यना अंतभागमां श्रीप्रभपर्वत उपर प्रायोपवेशन
(अर्थात् प्रायोपगमन संन्यास) धारण करीने शरीर अने आहारनुं ममत्व छोडी दीधुं
हतुं. आ संन्यासमां तपस्वीपणुं रत्नत्रयरूपी शय्या पर उपवेश–करे छे तेथी तेने
‘प्रायोपवेशन’