Atmadharma magazine - Ank 277
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९३ आत्मधर्म : १७ :
कहे छे; आ संन्यासवडे रत्नत्रयनी उत्कृष्ट शुद्धता थाय छे तथा कर्मरूपी शत्रुनो घणो
नाश थाय छे; आ संन्यासना धारक मुनिराज नगर–गाम वगेरे संसारी प्राणीओने
रहेवाना स्थानथी दूर एकांतमां वसे छे. आवो प्रायोपगमन–संन्यास धारण करनार ते
वज्रनाभिमुनिराज पोते पोताना शरीरनो कोई उपचार करता न हता, तेमज बीजा
पासे पण कांई उपचार–सेवा कराववानी ईच्छा राखता न हता. जेम शत्रुना
मृतकलेवरने जोईने कोई मनुष्य निराकुळ–निश्चिंत थई जाय, तेम तेमणे आ शरीरने
मृतककलेवरवत् जाणीने तेनुं ममत्व छोडी दीधुं हतुं ने अत्यंत निराकुळ थई गया हता.
जोके तेमनुं शरीर घणुं ज दुबळुं थई गयुं हतुं तोपण स्वाभाविक धैर्यना
अवलंबनवडे घणा दिवसो सुधी निश्चल चित्ते बेसी रह्या. मार्गथी च्युत न थवाय तथा
कर्मोनी अतिशय निर्जरा थाय ते हेतुथी तेओ क्षुधा–तृषा वगेरे बावीस परीसहोने
सहता हता. उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौर्य, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन्य
अने ब्रह्मचर्य–ए दश धर्मोनुं ते महा विद्वान मुनिराज पालन करता हता, के जे धर्मो
गणधरोने पण अत्यंत ईष्ट छे. तेओ बार वैराग्य–अनुप्रेक्षाओनुं निरंतर चिन्तन
करता हता:–
(१) संसारना सुख, आयु, बळ ने संपदा ते बधुं अनित्य छे.
(२) जन्म, वृद्धावस्था के मरण तेमां जीवने कोई शरण नथी.
(३) मिथ्यात्वादिना कारणे थतुं पंचविध संसारभ्रमण अत्यंत दुःखरूप छे.
(४) ज्ञान–दर्शनस्वरूप आत्मा सदा एकलो छे.
(प) शरीर, धन, भाई, स्त्री वगेरेथी ते सदा जुदो–अन्य छे.
(६) नवद्वारोथी अशुची झरे छे तेथी शरीर सदा अपवित्र छे.
(७) अज्ञानादिना कारणे जीवने सदा पुण्य–पापरूप कर्मनो आस्रव थाय छे.
(८) सम्यक्त्व सहित समिति–गुप्तिवडे कर्मनो संवर थाय छे.
(९) सम्यक्त्व सहित तपथी निर्जरा थाय छे.
(१०) ३४३ घनराजुप्रमाण लोक शाश्वत, अकृत्रिम छे.
(११) रत्नत्रयरूप बोधिनी प्राप्ति भवसमुद्रमां अत्यंत दुर्लभ छे.
(१२) रत्नत्रयादि धर्मवडे ज जीवनुं कल्याण छे.
ए प्रमाणे, तत्त्वचिन्तनपूर्वक तेमणे बार भावनाओ भावी. शुभ भावनाओ
अर्थात् पवित्र भावनाओने धारण करनारा ते वज्रनाभि मुनिराज लेश्यानी अतिशय
विशुद्धिने पाम्या, अने उपशम श्रेणीमां बीजीवार आरूढ थया. पृथक्त्व–वितर्क नामना
शुक्लध्यानने