: कारतक : २४९३ आत्मधर्म : १९ :
परम शांति दातारी
अध्यात्म भावना
(लेखांक: ४२) (अंक २७६ थी चालु)
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित समाधिशतक उपर पू. कानजीस्वामीनां
अहीं शिष्य पूछे छे के–प्रभो! देहमां आत्मभावनाथी जीव भवभ्रमण करे छे, अने
शुद्धात्मामां ज आत्मभावनाथी जीव मोक्ष पामे छे–एम आपे समजाव्युं; परंतु आत्माने मोक्ष
पामवा माटे कोई बीजा गुरु तो जोईए ने? तेना उत्तरमां श्री पूज्यपादस्वामी कहे छे के–
नयत्यात्मानमात्मैव जन्मनिर्वाणमेव च ।
गुरुरात्मात्मनस्तस्मात् नाम्योस्ति परमार्थतः ।।७५।।
आत्मा पोते ज पोताने पोताना अज्ञानवडे जन्ममां भमावे छे, ने पोताना
भेदज्ञानवडे मोक्ष पमाडे छे. आ रीते पोताना भाववडे पोते ज पोताना संसार के मोक्षने करे
छे, तेथी परमार्थे आत्मा पोते ज पोतानो गुरु छे, बीजा कोई परमार्थे गुरु नथी.
व्यवहारमां गुरु–शिष्यनो संबंध छे. जे हितोपदेश आपीने आत्मानुं कल्याण करे ते
गुरु कहेवाय; पण गुरुए जे हितोपदेश आप्यो ते झील्यो कोणे? ने ते प्रमाणे आचरण कर्युं
कोणे? आत्मा पोते ज्यारे ते उपदेश झीलीने, अने ते प्रमाणे आचरण करीने पोतानुं
कल्याण प्रगट करे, त्यारे तेनुं हित थाय; आ रीते आत्मा पोते ज पोताना हितनो कर्ता
होवाथी पोते ज परमार्थे पोतानो गुरु छे. श्री गुरुए तो हितोपदेश आप्यो, पण ते प्रमाणे
जीव पोते समजे नहि तो?–तो तेनुं हित थाय नहि. पोते समजे तो ज हित थाय, ने तो ज
श्रीगुरुनो उपकार कहेवाय. (समज्या वण उपकार शो?)
श्री गुरु तो एवो हितोपदेश आपे छे के ‘अरे जीव! तुं देहथी पार ने रागथी पार
चैतन्यतत्त्व छो; चैतन्यवीणा वगाडीने तारा आत्माने तुं जगाड; अंतर्मुख श्रद्धावडे तारा
चैतन्यनी वीणानो झणकार कर...’ श्रीगुरुनो आवो हितोपदेश सांभळवा छतां जीव पोते
जागृत थईने ज्यां सुधी आत्माने पहेचानतो नथी त्यां सुधी तेनो उद्धार थतो नथी. हा,
पात्र जीवने देशनालब्धिमां ज्ञानी गुरुनुं निमित्त जरूर होय छे, पण जे जीव पोतानी
परिणति बदलावे नहि तेने श्री गुरु शुं करे? श्री गुरु तो धर्मास्तिकायवत् निमित्त छे; पण
भवमां के मोक्षमां जीव पोते ज पोताने दोरी जाय छे. श्रीगुरुए उपदेशमां जेवो शुद्ध आत्मा
बताव्यो तेवा शुद्धआत्माने पोते