: कारतक : २४९३ आत्मधर्म : २३ :
‘गणप्रमद अतशय रह.
रहे अंतर्मुख योग’
गुणीजनोना गुणगाननुं आ दशक सत्संगनी प्रेरणा आपनारुं
ने गुणनी पुष्टि करनारुं होवाथी सौने गमशे.
(१) गुणनी प्राप्ति
सम्यग्द्रष्टिने ज्यां पोताना अनंत आत्मिक गुणोनुं
स्वामीत्व प्रगट्युं त्यां विकारनुं स्वामीत्व तेने केम रहे? गुणनी
प्राप्ति जेने थई ते दोषनो स्वामी केम थाय? अहा,
अनंतगुणनिधान आत्मा जेणे देख्यो तेना आह्लादनी शी वात!
(२) गुणनी पुष्टि
धर्मात्मा–गुणीजनोना आश्रयनो जेने भाव छे तेना
भावमां गुणनी वृद्धि थाय छे ने दोषनी हानी थाय छे. धर्मात्माना
सम्यक्त्व–वैराग्य वगेरे गुणो प्रत्येनी परमप्रीति–बहुमान ते
मुमुक्षुने पण तेवा गुणोनी प्राप्तिनुं ने पुष्टिनुं कारण थाय छे.
(३) गुणनी प्रीति
गुण अने दोष वच्चे जेने विवेक छे एटले जेने गुण गमे
छे ने दोष नथी गमता ते जीव ज्यां गुणने देखे त्यां उत्साहथी
जाय छे एटले के गुणीजनोनो सत्संग तेने गमे छे, दोषनो पोषक
एवो कुसंग तेने गमतो नथी.
(४) गुणीजनोनी छायामां वसवुं
प्रवचनसारमां गुणीजनोना सत्संगनो उपदेश आपतां
श्रमणने संबोधीने कहे छे के जो श्रमण दुःखथी परिमुक्त थवा
ईच्छतो होय तो ते समानगुणवाळा श्रमणना संगमां अथवा