Atmadharma magazine - Ank 277
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : कारतक : २४९३

देहनी स्तुति वडे आत्मानी स्तुति थती नथी, केमके देह ते आत्मा नथी, तो
तीर्थंकर केवळीनी खरी स्तुति कई रीते थाय? एवा प्रश्ननो उत्तर आपतां ३१ मी
गाथामां आचार्यदेव अलौकिक रहस्य समजावे छे के आत्माना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख
था तो सर्वज्ञनी परमार्थस्तुति थाय. ए सिवाय एकला परसन्मुखभावथी
(भावेन्द्रियथी के द्रव्येन्द्रियना अवलंबनथी) सर्वज्ञपरमात्मानी साची ओळखाण के
स्तुति थती नथी. एटले ज्ञानस्वभावनुं अवलंबन करीने स्वसन्मुख थयो, ने रागथी
भिन्न पडीने अतीन्द्रियभाव प्रगट कर्यो, ते भाववडे सर्वज्ञ परमात्मानी साची स्तुति
थाय छे.
स्तुति करनार अने जेनी स्तुति करवानी छे ते, ए बंनेनो भाव एक जातनो
थाय त्यारे साची स्तुति थाय. भगवान ज्ञानस्वरूप छे, तेमनी स्तुति ज्ञानवडे थाय,
रागवडे न थाय; अंतर्मुख ज्ञायकस्वभावना आश्रये ज्ञानभावरूपे परिणम्यो त्यारे
सर्वज्ञनी स्तुति थई; एटले के सम्यग्दर्शन ते सर्वज्ञनी पहेली स्तुति छे. आ स्तुतिमां
अंशे ईन्द्रियातीतपणुं थयुं छे तेथी जितेन्द्रिय छे. ज्ञानस्वभावनी अधिकताना
अनुभववडे आवी दशा प्रगट करे त्यारे सर्वज्ञपदनो साधक थयो, त्यारे सर्वज्ञनो साचो
भक्त थयो. आ सिवाय, सर्वज्ञनी स्तुति कर्या करे पण पोतामां सर्वज्ञ जेवा
ज्ञानभावनो अंश प्रगट न करे तो तेने सर्वज्ञनी स्तुति कहेवाती नथी. सर्वज्ञनी
स्तुतिनुं फळ तो पोतामां तेवो भाव अंशे प्रगट करवो–ते छे. ने एवो भाव प्रगट करीने
जेणे सर्वज्ञनी स्तुति करी ते पोते अल्पकाळे सर्वज्ञ थई जशे.
‘नम: समयसाराय’ कहो, वंदितु सव्वसिद्धे’ कहो, के सर्वज्ञनी स्तुति कहो–
त्रणेनो भाव एक छे; ते त्रणेमां आत्माना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थवानुं आवे छे.
आत्माना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने ज्यां द्रव्यकर्म–भावकर्म नोकर्मथी अत्यंत
भिन्न शुद्धआत्माने अनुभवमां लीधो त्यां समयसारने नमस्कार थया, त्यां सिद्धने
वंदन थया, अने त्यां सर्वज्ञनी परमार्थ स्तुति थई. ज्यां ज्ञानस्वभावनी सन्मुखता
नथी ने रागादिमां एकता छे त्यां समयसारने (एटले शुद्धात्माने) साचा नमस्कार
नथी, त्यां सिद्धने वंदन नथी, त्यां सर्वज्ञनी साची ओळखाण के स्तुति नथी.
ईन्द्रियातीत भाववडे अखंड आत्माने प्रतीतमां लीधो त्यां द्रव्यकर्म भावकर्म के नोकर्ममां
क्यांय अंशमात्र एकबुद्धि न रही, तेनाथी अत्यंत भिन्नता थई. आवी दशानुं नाम
सर्वज्ञनी स्तुति छे. आ स्तुतिमां परसन्मुखता नथी पण आत्मसन्मुखता छे.
(३१ मी गाथाना प्रवचनमांथी)