: ४० : आत्मधर्म : कारतक : २४९३
• शास्त्रमां मार्ग कह्यो छे, मर्म कह्यो नथी. मर्म तो सत्पुरुषना अंतरात्मामां
रह्यो छे.
• परमात्माने ध्याववाथी परमात्मा थवाय छे. पण ध्यावन आत्मा सत्पुरुषना
चरणकमळनी विनयोपासना विना प्राप्त करी शक्तो नथी.
• शुभाशुभ कर्मना उदय समये हर्षशोकमां नहीं पडतां भोगव्ये छूटको छे अने आ
वस्तु ते मारी नथी एम गणी समभावनी श्रेणी वधारता रहेशो. पूर्वनां
अशुभकर्म उदय आव्ये वेदतां जो शोच करो छो तो हवे ए पण ध्यान राखो के
नवां बांधतां परिणामे तेवां तो बंधातां नथी?
• आत्माने ओळखवो होय तो आत्माना परिचयी थवुं, परवस्तुना त्यागी थवुं.
• प्रशस्तपुरुषनी भक्ति करो, तेनुं स्मरण करो, गुणचिंतन करो.
• देहनी जेटली चिंता राखे छे तेटली नहीं पण एथी अनंतगणी चिन्ता आत्मानी
राख, कारण अनंत भव एक भवमां टाळवा छे.
• निरूपायता आगळ सहनशीलता ज सुखदायक छे.
• देहधारीने विटंबना ए तो एक धर्म छे. त्यां खेद करीने आत्मविस्मरण शुं
करवुं?
• उदासीनता ए अध्यात्मनी जननी छे.
• जेनुं हृदय शुद्ध, संतनी बतावेली वाटे चाले छे तेने धन्य छे.
• मोक्षनो मार्ग बहार नथी, पण आत्मामां छे. मार्गने पामेलो मार्ग पमाडशे.
• निरंतर उदासीनतानो क्रम सेववो; सत्पुरुषनी भक्ति प्रत्ये लीन थवुं;
सत्पुरुषोनां चरित्रोनुं स्मरण करवुं; सत्पुरुषोना लक्षणनुं चिंतन करवुं.
• जे कांई प्रिय करवा जेवुं छे ते जीवे जाण्युं नथी; अने बाकीनुं कंई प्रिय करवा
जेवुं नथी.–आ अमारो निश्चय छे.
[श्रीमद् राजचंद्रजीनी शताब्दि निमित्ते अहीं तेओश्रीनां एकसो वचनामृत
आपवानी भावना हती परंतु ‘आत्मधर्म’ नी पृष्ठ संख्या मर्यादित होवाथी
थोडा वचनामृत आपी शक््या छीए. आ वचनामृत ‘जन्मशताब्दि–ग्रंथमाळा’
ना बीजा पुष्पमांथी लेवामां आव्यां छे.]
जयजिनेन्द्र