Atmadharma magazine - Ank 277
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : आत्मधर्म : कारतक : २४९३
• शास्त्रमां मार्ग कह्यो छे, मर्म कह्यो नथी. मर्म तो सत्पुरुषना अंतरात्मामां
रह्यो छे.
• परमात्माने ध्याववाथी परमात्मा थवाय छे. पण ध्यावन आत्मा सत्पुरुषना
चरणकमळनी विनयोपासना विना प्राप्त करी शक्तो नथी.
शुभाशुभ कर्मना उदय समये हर्षशोकमां नहीं पडतां भोगव्ये छूटको छे अने आ
वस्तु ते मारी नथी एम गणी समभावनी श्रेणी वधारता रहेशो. पूर्वनां
अशुभकर्म उदय आव्ये वेदतां जो शोच करो छो तो हवे ए पण ध्यान राखो के
नवां बांधतां परिणामे तेवां तो बंधातां नथी?
आत्माने ओळखवो होय तो आत्माना परिचयी थवुं, परवस्तुना त्यागी थवुं.
प्रशस्तपुरुषनी भक्ति करो, तेनुं स्मरण करो, गुणचिंतन करो.
देहनी जेटली चिंता राखे छे तेटली नहीं पण एथी अनंतगणी चिन्ता आत्मानी
राख, कारण अनंत भव एक भवमां टाळवा छे.
निरूपायता आगळ सहनशीलता ज सुखदायक छे.
• देहधारीने विटंबना ए तो एक धर्म छे. त्यां खेद करीने आत्मविस्मरण शुं
करवुं?
उदासीनता ए अध्यात्मनी जननी छे.
जेनुं हृदय शुद्ध, संतनी बतावेली वाटे चाले छे तेने धन्य छे.
मोक्षनो मार्ग बहार नथी, पण आत्मामां छे. मार्गने पामेलो मार्ग पमाडशे.
• निरंतर उदासीनतानो क्रम सेववो; सत्पुरुषनी भक्ति प्रत्ये लीन थवुं;
सत्पुरुषोनां चरित्रोनुं स्मरण करवुं; सत्पुरुषोना लक्षणनुं चिंतन करवुं.
जे कांई प्रिय करवा जेवुं छे ते जीवे जाण्युं नथी; अने बाकीनुं कंई प्रिय करवा
जेवुं नथी.–आ अमारो निश्चय छे.
[श्रीमद् राजचंद्रजीनी शताब्दि निमित्ते अहीं तेओश्रीनां एकसो वचनामृत
आपवानी भावना हती परंतु ‘आत्मधर्म’ नी पृष्ठ संख्या मर्यादित होवाथी
थोडा वचनामृत आपी शक््या छीए. आ वचनामृत ‘जन्मशताब्दि–ग्रंथमाळा’
ना बीजा पुष्पमांथी लेवामां आव्यां छे.
]
जयजिनेन्द्र