Atmadharma magazine - Ank 277
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां; वळी पर्वतमां वाघ–सिंह
संयोग जो; अडोल आसन ने मनमां नहि क्षोभता, परममित्रनो जाणे
पाम्या योग जो.
उपरनी कडीमां श्रीमद् राजचंद्रजीए मुनिदशानी ने उग्र
आत्मध्याननी जे भावना भावी छे तेनुं भावनाचित्र अहीं आप्युं छे.
आ कडी उपरना प्रवचनमां, साथे साथे पोतानी पण भावनाने
मलावतां पू. कानजीस्वामी कहे छे के–
“धन्य ते निर्ग्रंथ साधकदशा! जंगलमां एकाकी एटले के
स्वरूपस्थितिना भावमां असंगपणे विचरता, बाह्य क्षेत्रथी स्मशान,
जंगल, पहाड, गूफा आदि ज्यां सिंह–वाघ पण एकाकी विचरता, होय
एवा क्षेत्रमां एकाकी असंगतामां विचरवुं ते महा पवित्र दशाने धन्य
छे. धन्य छे तेवा शांत एकांत क्षेत्रमां एकत्वने साधना मुनिवरोने!
कोई पर्वतनी गूफामां अथवा टोच उपर चडी बेहद आनंदघन
स्वभावनी मस्तीमां लीन थई, जागृत ज्ञानदशानी एकाग्रता वडे
केवळज्ञान निधानने प्रगट करुं; एकांत निर्जन स्थानमां नग्न महान
निर्ग्रंथ मुनि थई सहज स्वरूपमां मग्न थई केवळज्ञान प्रगट करुं एवी
पूर्ण पवित्रदशा क्यारे आवे? ए अहीं भावना छे.–आवी भावनानो
उत्साह साधकने ज आवे छे.”