Atmadharma magazine - Ank 277
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९३ आत्मधर्म : ३ :
भाई, आत्मा अने अनात्मा कदी एकमेक थया नथी; जीव अने शरीर कदी
एकमेक थया नथी; चैतन्य अने राग कदी एकमेक थया नथी; सदाय जुदा ज छे.–पण तें
भ्रमथी एकपणुं मान्युं हतुं ते हवे तुं छोड; ने आनंदित थईने जडथी भिन्न, रागथी
भिन्न, तारा चैतन्यतत्त्वने अनुभवमां ले. तने एम थशे के अहो! मारो आ आत्मा
तो सदाय ज्ञानस्वरूप ज रह्यो छे. तेनो एक अंश पण जड साथे के अनात्मा साथे तद्रूप
थयो नथी.–आवा आत्माने देखीने तुं प्रसन्न था, आनंदित था.
उपयोग साथे तारा आत्माने सदाय एकता छे, पण अनात्मा साथे (जड साथे
के रागादि साथे) तारा आत्माने एकता कदी नथी. माटे ज्ञानरूप थईने ज्ञाननो स्वाद
ले. भाई, ज्ञानना स्वादमां आनंद छे; रागमां तो आकुळतानो स्वाद छे, ने ज्ञानना
वेदनमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद छे. आवा चैतन्यरसनो स्वाद तुं ले. रागादि
परभावोमांथी बहार काढीने तारुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व अमे तने देखाडयुं, हवे आनंदित
थईने तुं तारा आवा तत्त्वने अनुभवमां ले...ने राग साथे एकताना मोहने छोड.
भाई, तुं अंदर जोतो नथी एटले तारुं चेतनस्वरूप तने देखातुं नथी, ने
बहारना भावो तने तारा लागे छे.–पण ए तो मोह छे. ए बहारना अस्वभाव भावो
(स्वभावथी भिन्न भावो) ते तो संयोगरूप छे, ने वेगपूर्वक वही रह्या छे, क्षणेक्षणे ते
आवे छे ने चाल्या जाय छे. तारुं चैतन्यस्वरूप तो एम ने एम टकी रह्युं छे.–आवा
उपयोगस्वरूपे तुं तारा आत्माने जो.
रागना रंगे रंगाई गयेला जीवने स्फटिक जेवुं पोतानुं स्वच्छ उपयोगस्वरूप
देखातुं नथी, जाणे आखो आत्मा ज रागथी रंगाई गयो होय–एम एने लागे छे.
बापु, ए रागना रंग तो उपर–उपरना छे, ए कांई तारा चैतन्यस्वरूपमां पेसी गया
नथी. जेम प्रकाश अने अंधकार भिन्न छे तेम उपयोगप्रकाश अने रागअंधकार भिन्न
छे, तेमने एकपणुं कदी नथी. माटे आवा भेदज्ञान वडे अत्यंत प्रसन्न थईने तुं
स्वद्रव्यने अनुभवमां ले.
आचार्यदेव कहे छे के विकारने ज आत्मा तरीके जे अनुभवे छे ते दुरात्मा छे,
आत्माना पवित्र स्वभावनो ते घात करे छे, ज्ञानना मीठा–अनाकुळ–शांत स्वादने
विकार साथे भेळवीने ते आकुळस्वादने ज अनुभवे छे. अरे मूढ! तारी ज्ञानज्योति
क्यां गई? तुं परम विवेक करीने ज्ञानने अने रागने भिन्न जाण; ज्ञानना स्वादने ज
तारो स्वाद जाण. आनंदमय थईने ‘ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं’ एम तुं अनुभव कर.
आत्मा तो उपयोगस्वरूप छे ने रागादि तो अनुपयोग छे, ते बंनेने एकता होई
शके नहि. अज्ञानी देहनी क्रियामां आत्मानुं अस्तित्व स्वीकारे छे, एटले के पुद्गल–