
अंतरमां चैतन्यनी प्राप्तिनो प्रयत्न करे तो अंतर्मुहूर्तमां तेनी प्राप्ति थाय ने
सादिअनंतकाळनुं सुख प्राप्त थाय. स्वरूपना अभ्यास वडे स्वरूपनी प्राप्ति जरूर थाय
छे. परनी प्राप्ति तो न थाय, पण पोतानी वस्तु तो पोतामां मोजुद छे, जो चेतीने–
जागृत थईने जुए तो पोतानुं स्वरूप पोताना वेदनमां आवे छे. पोतानुं स्वरूप कांई
पोताथी दूर नथी, अंतर्मुख थतां पोते ज ज्ञान–आनंदस्वरूप छे एम अनुभवमां
आवे छे.
छ महिनानो समय लागवानुं कह्युं छे. निष्प्रयोजन कोलाहल छोडीने स्वरूपना प्रयत्नमां
लागवाथी तत्काळ तेनी प्राप्ति थाय छे. पामनारा अंतर्मुहूर्तमां पाम्या छे; अंतर्मुहूर्तमां
केवळज्ञान पण थाय छे. तो पछी सम्यग्दर्शन तो सुगम छे पण ते माटे अंतर्मुख प्रयत्न
जोईए. नजरनी आळसे पोते पोताना स्वरूपने देखतो नथी,–पण छे तो अंतरमां ज.
माटे हे भव्य! बीजो बधो कोलाहल छोडीने एक चिदानंदतत्त्वनी प्राप्तिना प्रयत्नमां
तारा उपयोगने जोड के जेथी तुरतमां ज तने तारो आत्मा अनुभवमां आवशे.
सम्यग्दर्शन तथा संयमने पाम्या अने घणा ज थोडा काळमां रत्नत्रयनी
पूर्णता करीने सिद्ध थया...माटे आराधना ज सार छे.