युक्त एवा बीजा अहमिन्द्रोनी साथे घणा आदरपूर्वक ते संभाषण करता हता. कोई
वार ते हर्षपूर्वक अहमिन्द्रोनी साथे तत्त्वचर्चा करता हता, तो कोईवार पोताना
निवासनी नजीकना उपवनमां सरोवरना किनारे राजहंसनी जेम क्रीडा करता हता.
शुक्ललेश्याना प्रभावथी पोताना वैभवमां संतुष्ट रहेनारा ते अहमिन्द्रने पोताना
निरूपद्रव सुखमयस्थानमां जेवी उत्तम प्रीति होय छे तेवी बीजे क्यांय थती नथी, तेथी
परक्षेत्रमां जवानी ईच्छा ज तेमने थती नथी. जोके तेमनी गमन करवानी शक्ति तो
घणी छे, पण ते प्रकारनी आकुळता न होवाथी पोताना विमानथी बहार तेओ गमन
करता नथी. ‘हुं ज ईन्द्र छुं, मारा सिवाय अन्य कोई ईन्द्र नथी’ एवा आत्मसंतोषथी
ते उत्तमदेव ‘अहमिन्द्र’ नामथी प्रसिद्ध थाय छे. ते अहमिन्द्रदेवोमां एकबीजा प्रत्ये
ईर्षा नथी, बीजानी निंदा के पोतानी प्रशंसा नथी. तेओ सुखी ने हर्षसहित वर्तता थका
सदा किलोल करे छे.
३३ सागर तेनुं आयुष्य हतुं; एक हाथ ऊंचुं ने हंस जेवुं धोळुं अत्यंत सुंदर तेनुं शरीर
हतुं. ते शरीरना शुद्ध अने तेजस्वी किरणोनो प्रकाश दशे दिशामां फेलातो हतो. आ रीते
ईन्द्रादि देवोनेय अगोचर ने परम आनंददायक एवा श्रेष्ठ सर्वार्थसिद्धिपदने ते पाम्यो.
दीपकवडे ते त्रसनाडीमां रहेला जाणवायोग्य मूर्तिक द्रव्योने तेमनी पर्यायो सहित
प्रकाशीत करता हता. ते अहमिन्द्रने पोताना अवधिज्ञानना क्षेत्र जेटली विक्रिया
करवानुं सामर्थ्य हतुं, परंतु रागरहित होवाने कारणे वगर प्रयोजने तेओ कदी विक्रिया
करता नहि. जाणे जगतनुं बधुं सौन्दर्य एक जगाए एकठुं थयुं होय एवी सुंदर तेमनी
मुद्रा हती. छठ्ठा गुणस्थानवर्ती मुनिराजने आहारकऋद्धिथी उत्पन्न थयेला आहारक
शरीरनी माफक ते अहमिन्द्रनुं वैक्रियिकशरीर देदीप्यमान हतुं. जिनेन्द्रदेवे जे एकान्त
अने शांतरूप सुखनुं निरूपण कर्युं छे ते बधुं सुख जाणे के आ अहमिन्द्र पासे भेगुं
थयुं हतुं.