छे, विद्वान पुरुषो ते ज सुखने चाहे छे के जेमां मन विषयोथी निवृत्त थई जाय छे–चित्त
संतुष्ठ थाय छे; परंतु एवुं निराकुळ सुख ते विषयान्ध मनुष्योने क्यांथी प्राप्त थाय, के
जेमनुं चित्त सदाय विषयोनी प्राप्ति करवा माटे खेदखिन्न थई रह्युं छे! बाह्यविषयोमां
सुख शोधनारने आकुळता कदी मटती नथी ने सुख कदी मळतुं नथी. विषयोना
अनुभवथी प्राणीओने जे सुख लागे छे ते पराधीन छे, बाधाओथी सहित छे,
व्यवधान (अंतराय) वाळुं छे, अने कर्मबंधनुं कारण छे तेथी ते दुःख ज छे, विषयो
दारूण विष जेवा छे, ते भोगवती वखते रमणीय लागे छे पण खरजवानी खाजनी
माफक ते दुःख देनारा ज छे. ज्यां सुधी मनमां विषयोनी ईच्छा विद्यमान छे त्यां सुधी
जीवनुं साचुं सुख कदी मळतुं नथी. साचुं सुख त्यारे ज थाय छे के ज्यारे मनमांथी
विषयोनी चाह नीकळी जाय. सर्वार्थसिद्धिना देवोए आत्माना अतीन्द्रिय सुखने चाख्युं
छे अने विषयोनी चाहना तेमना मनमांथी नीकळी गई छे तेथी बाह्यविषयो विना ज
तेओ खरेखर सुखी छे. जगतमां प्रिय स्त्रीना संसर्गथी ज जीवोने जो सुख थतुं होय तो
तो गंधाता कूतरा–कागडा–हरण ने पक्षी वगेरे तिर्यंचो पण सुखी होवा जोईए. जेम
कडवा लीमडामां उत्पन्न थयेल कीडो तेना कडवा रसना भोगवटामां पण मधुरता
मानीने रति करे छे, तेम संसाररूपी विष्ठामां उत्पन्न थयेलो आ मनुष्यरूपी कीडो,
स्त्रीआदि विषयोना भोगवटामां थता खेदने सुख मानीने तेमां लीन रहे छे!
विषयसेवननी प्रीतिने ज जो सुख मानवामां आवे तो, कूतरा अने भूंड जेने प्रीतिथी
खाय छे एवी विष्ठामां पण सुख मानवुं जोईए. अरे, विषयसेवननी ईच्छावाळा
जंतुओ निंद्यवस्तुना सेवनमां पण महासुख माने छे! विषयोपभोगमां आकुळ जीवनुं
शरीर शिथिल थई जाय छे, कंपे छे,–जो एवा जीवोने पण सुखी कहेशो तो संसारमां
दुःखी कोने कहेशो? मूरखा जीवो ज विषयसेवनमां सुखनी कल्पना करे छे. जेम कूतराने
हाडकामांथी जरापण रस आवतो नथी, व्यर्थ कल्पनाथी ज तेमां ते सुख माने छे; तेम
विषयोना सेवनमां प्राणीओने जरापण सुख प्राप्त थतुं नथी, पण मोहथी व्यर्थ कल्पना
करीने ते पोताने सुखी माने छे. विषयोमां सुखनी आवी विपरीत मान्यता ते मिथ्यात्व
छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रवडे कर्मोना क्षयथी के उपशमथी जे आत्मानो स्वाभाविक
आह्लाद उत्पन्न थाय छे ते ज सुख छे. ते सुख अन्य वस्तुओना आश्रये कदी उत्पन्न
थतुं नथी.