छे, तेम ईन्द्रियविषयोना प्रवाहमां तणायेलो जीव नरकरूपी ऊंडा खाडामां पडीने
दुःखना भम्मरमां गोथां खाय छे. विषयोथी ठगायेलो जीव (मृगजळमां पाणीना
भ्रमथी ठगायेला मृगलांनी माफक) महा कलेशने पामे छे, विषयो पाछळ दोडीदोडीने
थाके छे पण किंचित् सुख तेने मळतुं नथी. क्यांथी मळे? तेमां सुख होय तो मळे ने?
एमां सुख छे ज नहि पछी क्यांथी मळे? मनचाही वस्तु कदाचित मळे तोपण तेमां
सुख नथी, तेने भोगववानी ईच्छामां आकुळतारूप दुःख ज छे. जो जीव दुःखी न होय
तो विषयो तरफ ते शा माटे दोडे? विषयाधीन जीव रागद्वेष वडे पोताना आत्माने
दूषित करे छे, ने छूटवा कठण पडे एवा कर्मोने बांधे छे; ते कर्मोथी परलोकमां पण ते
अत्यंत दुःखी थाय छे. आ रीते विषयाधीन जीवने दुःखनुं चक्र चाल्या ज करे छे. आ
समस्त अनर्थनी परंपरा विषयोथी ज उत्पन्न थाय छे एम समजीने विषयोनी प्रीति
छोडी देवी जोईए, ने आत्माधीन अतीन्द्रियसुखनी श्रद्धा करीने उत्साहपूर्वक तेनो प्रेम
करवो जोईए.
ज साचुं सुख छे –एम सिद्ध करीने, श्री गौतमस्वामी श्रेणिकराजाने कहे छे के हे
मगधपति! तुं नक्की कर के अहमिन्द्रदेवोनुं जे विषयरहित दिव्यसुख छे ते विषयजन्य
सुखथी घणुं अधिक छे.
उत्पन्न (आत्माश्रित) छे अने अनुपम छे. स्वर्गना तेमज मनुष्योना त्रणकाळना
सुखने एकठा करवामां आवे तोपण, सिद्धप्रभुना एक क्षणनाय सुखनी बराबरी ते करी
शकता नथी. ए सिद्धभगवंतोनुं सुख पोताना आत्माथी ज उत्पन्न छे, बाधा वगरनुं
छे, कर्मोना क्षयथी थयेलुं छे, परम आह्लादरूप छे, उपमा वगरनुं छे अने सौथी श्रेष्ठ छे.
सर्व परिग्रहथी रहित, शांत अने उत्कंठाथी रहित एवा सिद्धभगवंतो पण जो सुखी छे,
तो सर्वार्थसिद्धिना अहमिन्द्रोने पण बाह्यसामग्री वगरनुं सुख सिद्ध थई जाय छे.
सिद्धभगवंतो जेम बाह्यसामग्री वगर ज संपूर्ण सुखी छे, तेम विषयरहित एवा
सर्वार्थसिद्धिना देवो पण बीजा (विषयलीन) जीवो करतां वधु सुखी छे.