Atmadharma magazine - Ank 278
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : मागशर : २४९३
परम शांति दातारी
अध्यात्म भावना
(लेखांक ४३) (अंक २७७ थी चालु)
भगवानश्री पूज्यपादस्वामी रचित समाधिशतक उपर
पूज्यश्री कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक
प्रवचनोनो सार.
देहमां आत्मबुद्धिथी जीव पोताने भवसमुद्रमां रखडावे छे, ने देहथी भिन्न
चिदानंद– स्वरूप आत्माने जाणीने आत्मामां ज आत्मबुद्धि वडे जीव पोताने मोक्षमां
लई जाय छे. आ रीते आत्मा पोते ज पोताना बंध–मोक्षनो कर्ता छे. एटले हितमार्गमां
लई जवा माटे निश्चयथी पोते ज पोतानो गुरु छे ए वात ७प मी गाथामां बतावी.
हवे, देहादिथी भिन्न आत्माने जे जाणतो नथी, ने देहने ज आत्मा मानीने
तेमां आत्मबुद्धिथी वर्ते छे तेने मरण प्रसंगे शुं थाय छे ते कहे छे–
द्रढात्मबुद्धिर्देहादावुत्पश्यन्नाशमात्मनः।
मित्रादिभिर्वियोगं च विभेति मरणाद्भृशम् ।।७६।।
जेने द्रढपणे देहमां ज आत्मबुद्धि छे, देह ते ज हुं एम मान्युं छे ते जीव देह
छूटवानो प्रसंग आवतां पोतानुं मरण मानीने मरणथी भयभीत थाय छे, ने
मित्रादिनो वियोग देखीने भयभीत थाय छे.
जुओ, एकवार तो बधायने आ देहना वियोगनो प्रसंग आवेश ज. आ देह
छूटो छे ते छूटो पडशे, ते कांई आत्मा नथी. जेणे देहथी भिन्न आत्मतत्त्वने लक्षमां
लीधुं नथी ते देहना वियोगे आत्मानुं मरण माने छे एटले ते अशरणपणे मरे छे.
ज्ञानी तो आत्माने देहथी भिन्न जाणे छे, देहने पहेलेथी जुदो ज जाण्यो छे,
ध्रुवचैतन्यनी द्रष्टिमां तेने मरणनो भय नथी. ज्ञानी जाणे छे के आ जड शरीर मारुं
नथी, मारुं तो ज्ञानशरीर छे, ते ज्ञानशरीरनो मने कदी वियोग थतो नथी माटे मारुं
मरण नथी.