देहथी जुदा आत्मानुं शरण तेने भासतुं नथी तेथी ते अशरणपणे मरे छे.
जन्म–मरण नुं ज कारण थाय छे. देहद्रष्टिवाळाने ‘हुं मरी जईश’ एवो भय कदी मटतो
नथी; आत्मद्रष्टिवाळाने पोतानुं अविनाशीपणुं भास्युं छे एटले तेने मरणनो भय
रहेतो नथी. तेथी कह्युं छे के–
या कारन मिथ्यात दियो तज, फिर कयों देह धरेंगे......
एवी ताकात छे के अनंत जन्म–मरणथी छोडावे छे ने मृत्युनो भय मटाडे छे. आवुं
भेदज्ञान कोई बहारनी क्रियाना आश्रये के रागना आश्रये थतुं नथी, चैतन्यना
स्वसंवेदनना अभ्यासवडे ज आवुं अपूर्व भेदज्ञान थाय छे.
देहनी साथे मित्रता करी करीने, देहना संगे जीव चारगतिमां रखडयो, पण हवे
कट्टी थई ने मोक्ष साथे मित्रता थई. ते अल्पकाळमां मोक्ष पामशे.
ज्ञानक्रियाने जाणतो नथी. भाई, तुं चेतन...शरीर जड; तारी क्रिया ज्ञानमय, शरीरनी
क्रिया अजीव; जीवनो धर्म तो जीवनी क्रियावडे थाय, के जीवनो धर्म अजीवनी क्रियावडे
थाय? देहथी भिन्न उपयोगस्वरूप आत्मा सर्वज्ञदेवे जेवो जोयो छे तेवो तने अत्यंत
स्पष्टपणे सन्तो समजावे छे, –तो हवे तो तुं भेदज्ञान कर! एकवार प्रसन्न थईने