Atmadharma magazine - Ank 278
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९३ आत्मधर्म : १९ :
मरण ज मारुं नथी पछी भय केवो? जेने देहद्रष्टि छे तेने ज मरणनो भय छे, केमके
देहथी जुदा आत्मानुं शरण तेने भासतुं नथी तेथी ते अशरणपणे मरे छे.
भाई, पहेलां आत्मा अने देह वच्चे भिन्नता जाणीने, देहथी जुदा आत्माने
स्वसंवेदनमां ले. देह ते हुं एवी द्रष्टिने बदले, ‘आत्मा हुं’ एवी द्रष्टि कर; द्रष्टि एकदम
पलटावी नांख. आवी द्रष्टि पलटाव्या वगर जे कांई चेष्टा करवामां आवे ते बधी
जन्म–मरण नुं ज कारण थाय छे. देहद्रष्टिवाळाने ‘हुं मरी जईश’ एवो भय कदी मटतो
नथी; आत्मद्रष्टिवाळाने पोतानुं अविनाशीपणुं भास्युं छे एटले तेने मरणनो भय
रहेतो नथी. तेथी कह्युं छे के–
अब हम अमर भये न मरेंगे...............
या कारन मिथ्यात दियो तज, फिर कयों देह धरेंगे......
अब हम अमर भये
देह अने आत्मानी एकत्वबुद्धि राखीने जीव जे कांई क्रियाकांड करे, शुभराग
करे, पण तेनामां एवी ताकात नथी आवती के मरणनो भय मटाडे. भेदज्ञानमां ज
एवी ताकात छे के अनंत जन्म–मरणथी छोडावे छे ने मृत्युनो भय मटाडे छे. आवुं
भेदज्ञान कोई बहारनी क्रियाना आश्रये के रागना आश्रये थतुं नथी, चैतन्यना
स्वसंवेदनना अभ्यासवडे ज आवुं अपूर्व भेदज्ञान थाय छे.
अहा, सम्यग्दर्शन थयुं त्यां तो ‘भवकट्टी’ थई गई. जेम बे छोकराने न भळे
तो ‘कट्टी’ करीने मित्रता छोडी दे छे; तेम बालबुद्धिथी देह अने आत्माने एक मानीने,
देहनी साथे मित्रता करी करीने, देहना संगे जीव चारगतिमां रखडयो, पण हवे
भिन्नतानुं भान थतां देह साथेनी मित्रता छोडी ने तेनी कट्टी करी, एटले भव साथे
कट्टी थई ने मोक्ष साथे मित्रता थई. ते अल्पकाळमां मोक्ष पामशे.
अज्ञानी तो शरीरनी हयातीने ज पोतानी हयाती माने छे, शरीरना वियोगने
पोतानुं मरण माने छे; शरीरनी क्रियाने पोतानी क्रिया माने छे, पण पोतानी
ज्ञानक्रियाने जाणतो नथी. भाई, तुं चेतन...शरीर जड; तारी क्रिया ज्ञानमय, शरीरनी
क्रिया अजीव; जीवनो धर्म तो जीवनी क्रियावडे थाय, के जीवनो धर्म अजीवनी क्रियावडे
थाय? देहथी भिन्न उपयोगस्वरूप आत्मा सर्वज्ञदेवे जेवो जोयो छे तेवो तने अत्यंत
स्पष्टपणे सन्तो समजावे छे, –तो हवे तो तुं भेदज्ञान कर! एकवार प्रसन्न थईने
अंतरमां आवुं भेदज्ञान कर.