Atmadharma magazine - Ank 278
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : मागशर : २४९३
मारी कोई चेष्टा देहमां नथी, ने देहनी कोई चेष्टामां हुं नथी–आवुं भेदज्ञान जेने
नथी ते मरणना भयथी थरथर ध्रुजे छे. भले कदाच मरण टाणे बहारथी धैर्य के शांति
राखे, पण ‘हुं मरुं छुं’ एवो जे अभिप्राय तेमां पोताना अस्तित्वनो ज ईन्कार पड्यो
छे एटले मरणनो भय तेने खरेखर मटे ज नहि. ज्ञानी तो निःशंक छे के अविनाशी
आत्मपदने द्रष्टिमां लईने मरणने तो में मारी नांख्युं छे.–‘मृत्यु मरी गयुं रे लोल’
पछी मरणनो भय केवो? अज्ञानीने मरण तणी बीक छे, ज्ञानीने तो आनंदनी लहेर जो...
भाई, बहारमां तें शरीर, मित्र, धन, वगेरेने शरणरूप मानीने जीवन वीताव्युं,
तो ए बधाना वियोग टाणे तुं कोनुं शरण लईश? अंदरमां जे शरण छे तेने तो तें
जाण्युं नथी! –मरण टाणे कोना शरणे तुं शांति राखीश? संयोगना शरणे कदी शांति के
समाधि थाय नहि. एटले अज्ञानी तो देहद्रष्टिने लीधे मरणथी भयभीत थईने
असमाधिपणे मरे छे. आ रीते अज्ञानीनी वात करी. ने ज्ञानीने तो देह छोडवो ते एक
वस्त्र बदलीने बीजुं धारण करवा समान छे एटले ते तो निर्भयपणे देह छोडे छे–ए
वात हवे कहेशे. (७६)
‘धनतेरस’ ................ ‘धन्य– ते– रस!’
आसो वद १३ ना रोज गुरुदेवे आत्माना अनुभवना अतीन्द्रिय
आनंदरसनुं अद्भुत वर्णन करतां कह्युं के आ ‘धनतेरस’ नी लापसी पीरसाय
छे, अतीन्द्रिय आनंदरसथी भरेली लापसी सन्तो पीरसे छे.
त्यारे ते सांभळीने, ईंदोरना पं. श्री बंसीधरजीए प्रमोदपूर्वक कह्युं के,
‘धन्य–ते–रस!’ धन्य ते धनतेरसनो अतीन्द्रिय रस. जेणे आत्माना आवा
अतीन्द्रिय आनंदरसनो अनुभव कर्यो ते धन्य छे. भगवान महावीर परमात्मा
आवा आनंदरसना अनुभवथी जीवनने धन्य करीने मोक्षमां सिधाव्या.
–धन्य ते...रस!