Atmadharma magazine - Ank 278
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : मागशर : २४९३
चत चत जीव चत!
विकारी संसारथी विरक्त थईने चैतन्यना आनंदनो स्वाद ले
[वैराग्यप्रेरक प्रवचन : कारतक सुद १४]
त्मा ज्ञानस्वभावी छे; ते ज्ञानस्वभावने जाणनार ज्ञानी तो ज्ञानभावने ज
करे छे; रागादि अन्य भावोने पोताना स्वभावपणे ते करतो नथी. अज्ञानी पण
अज्ञानभाववडे पोताना शुभ–अशुभ भावनो कर्ता थाय, पण पोताथी भिन्न एवा
परद्रव्यना कोई कार्यनो कर्ता ते थई शके नहि. शुभाशुभ–रागकार्यनुं कर्तृत्व ते अधर्म,
अने वीतरागी ज्ञानभावनुं कर्तृत्व ते धर्म; चोथा गुणस्थानथी ज ज्ञानीने ज्ञानभावनुं
ज कर्तृत्व छे ने रागादि अन्यभावोनुं कर्तृत्व छूटी गयुं छे.
अरे जीव! देहथी भिन्न तारा चैतन्यनी संभाळ तें कदी करी नथी. आ देह तो
रजकणनुं ढींगलुं छे; एनां रजकणो तो रेतीनी जेम ज्यांत्यां वींखाई जशे.–
रजकण तारा रखडशे जेम रखडती रेत;
पछी नर भव पामीश क्यां? चेत चेत नर चेत!
रे जीव! तुं चेतीने जागृत था. आत्माने जाणनारा आठ आठ वर्षना राजकुमारो
ते संसारथी वैराग्य पामीने माता पासे जईने कहे छे के हे माता! रजा आप...‘अलख
जगावुं जंगलमां एकलो!’ जंगलमां जई मुनि थई आत्मध्यानमां मस्त बनुं!
माता कहे छे–अरे बेटा! तुं तो हजी नानो छोने! हजी आठ ज वर्षनी तारी
उमर छे ने!
त्यारे पुत्र कहे छे–माता! देह नानो छे, पण एटलुं तो हुं जाणुं छुं के आ देह तो
संयोगी चीज छे, ते हुं नथी, हुं तो अविनाशी चैतन्य छुं.–एवा चैतन्यना आनंदनुं
स्वसंवेदन करीने ते आनंदने साधवा हुं जाउं छुं. माटे हे माता! तुं मने रजा आप. आ
असार संसारमां मने क्यांय हवे चेन पडतुं नथी. आ राजमहेल हवे