Atmadharma magazine - Ank 278
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९३ आत्मधर्म : प :
सर्वज्ञे जोयेलो परमार्थ जीव केवो छे?
[विकारने आत्मस्वभाव माननारो सर्वज्ञने जाणतो नथी.]
अहो, आचार्यभगवाने भेदज्ञाननी
कोई अपूर्व वात समजावी छे. सर्वज्ञनी
साक्षीथी ने पोताना स्वानुभवनी निःशंकताथी
चेतननी ने रागनी अत्यंत भिन्नता युक्ति
वडे समजावी छे. अरे, एक वार ‘याहोम’
करीने चैतन्यस्वभावमां झंपलाव. सर्वथा
राग वगरनो चैतन्यस्वभाव, ए ते शुं राग
सामे जोये अनुभवमां आवतो हशे? छोड
एनी द्रष्टि, मूक तारुं मान, ने झंपलाव
चैतन्य दरियामां!
[समयसार गाथा ४४ उपरना प्रवचनमांथी]
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ते अचेतनस्वरूप नथी, रागादिस्वरूप नथी,–आवा
आत्मानो जेणे अनुभव कर्यो तेने मोक्षमार्ग थयो.
जे जीवो आवा आत्माने अनुभवता नथी ने मात्र शुभरागमां धर्म मानीने
अटकी गया छे तेवा जीवो मोक्षने साधवामां नामर्द छे, पुरुषार्थ वगरना छे; मोहने
मारवानी शक्ति तेनामां नथी.
भगवान सर्वज्ञदेवे आत्माने तो परम चैतन्यमय कह्यो छे, ने समस्त रागादि
अन्य भावोने चैतन्यथी भिन्न कह्या छे, एटले अचेतन कह्या छे, ने अचेतन होवाथी
ते पुद्गलमय कह्या छे, पण जीवना स्वभावमय ते नथी.–धर्मी जीव आवा आत्माने जाणे