Atmadharma magazine - Ank 279
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९३ आत्मधर्म : ७ :
चैतन्यराजा स्वानुभवथी शोभे छे
[राजाओनो पण राजा एवो आ चैतन्यमहाराजा, तेनी सन्मुख
थईने तेनी सेवा करतां ते प्रसन्न थाय छे ने आनंदनो अनुभव आपे छे.
...घणाय धर्मात्माओए अंतरमां आवा आत्मानो अनुभव कर्यो छे;
पोते जाते अनुभव करीने कहे छे के तमे पण जो आत्मानी लगनी
लगाडीने, अने संसारना कोलाहलनो रस छोडीने अंतरमां उद्यम करो
तो तमने पण जरूर अमारी जेम आत्मानो अनुभव थशे.
]
आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव! जेम अनादिथी तने शरीरनां काम हुं करुं ने शुभ
रागथी धर्म थाय–एवी बहारनी धून लागी छे, तेम एकवार अमे कहीए छीए तेवा
भिन्न आत्माना अनुभवनी तो धून लगाड. आवा आत्मानो रसिक थईने तेना
अनुभवनो उद्यम कर, तो तने जरूर तेनी प्राप्ति तारा अंतरमां थशे. आत्मानी प्राप्ति न
थाय–ए ते कांई शोभे? अरे, एक सारा राजा पासे जईने तेनी सेवा करे तो ते पण
प्रसन्न थईने न्याल करे छे, तो जगतना राजाओनो पण राजा–एवो आ आत्मराजा–
चैतन्यमहाराजा, तेनी सन्मुख थईने तेनी सेवा करे (तेना श्रद्धा ज्ञाननो उद्यम करे) अने
ते प्रसन्न थईने साक्षात् आनंदनो अनुभव न आपे–ए ते कांई शोभतुं हशे? –न शोभे.
चैतन्य राजानी सेवा करतां ते साक्षात् दर्शन आपे ज, तेनो अनुभव थाय ज, ने
स्वानुभवथी आत्मा शोभी ऊठे–एवो आत्मा छे.
अहा, आत्मा तो सर्वज्ञ–समरसी वस्तु छे, वीतरागमूर्ति ने ज्ञानमूर्ति छे; बीजो
कोलाहल ने बीजा विकल्पो छोडीने आवा आत्मानो प्रेम प्रगट करे तो जरूर सम्यग्दर्शन
थाय; वीतरागता ने सर्वज्ञता थाय.
जेनामां ज्ञान भर्युं छे तेनुं ज्ञान कर!
जेनामां वीतरागता भरी छे तेने वीतरागभाववडे साध. राग वडे ते नहि सधाय,
राग वडे ते नहि जणाय.
अहो, चैतन्यनी प्राप्तिनो प्रयत्न करे ने तेनी प्राप्ति न थाय–ते शोभे नहि. साचो
पुरुषार्थ करे ने तेनुं कार्य न प्रगटे तो तो जगतमां कारण–कार्यनो मेळ तूटी जाय, –ए