उपदेश विदेहक्षेत्रमां आपी रह्या छे.
वडे अमारी शोभा नहि, सर्वज्ञता ने समरसीभावरूप जे चैतन्यहार तेना वडे अमारी
शोभा छे, ते हारमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे साचा रत्नो गूंथेला छे. अनंती
निर्मळपर्यायनी हारमाळा जेमां गूंथायेली छे एवो आ चैतन्यस्वरूप आत्मा महा
शोभायमान वस्तु छे. तेनी प्राप्तिनो उद्यम कर. तारा अंतरमां ज तने तेनी प्राप्ति थशे.
अमारी वात लक्षमां ले; ने अमे कह्युं ते रीते देहथी ने रागथी अत्यंत भिन्न एवा
आत्माने अंतरमां देखवानो उद्यम कर. तुं जो के एवा अभ्यासथी छ महिनामां तने केवुं
उत्तम फळ आवे छे? तने जरूर आत्मानो अनुभव थशे; स्वानुभवनी प्राप्तिथी तारो
आत्मा शोभी ऊठशे.
ए तो कलंक छे. तारो आत्मा एनाथी भिन्न चैतन्यविलास वडे शोभे छे.
चैतन्यरूपे थयो नथी, माटे ते राग पण तुं नथी. तुं तो चैतन्यस्वरूप ज सदाय छो; आवा
चैतन्यस्वरूपने देहथी भिन्न देख, ने रागथी भिन्न देख;–एने देखतां ज तने परम
आनंदसहित तारुं चैतन्यपद प्रगट अनुभवमां आवशे. एनी लगनी लागवी जोईए,
एनी धून जागवी जोईए...तो अंतर्मुहूर्तमां ज एनी प्राप्ति थई जाय.
संसारना कोलाहलनो रस छोडीने अंतरमां उद्यम करो तो तमने पण जरूर अमारी
जेम आत्मानो अनुभव थशे.