Atmadharma magazine - Ank 279
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : पोष : २४९३
आ शरीर साथे एकक्षेत्रे रहेवारूप नीकट संबंध होवा छतां आत्माथी ते तद्न
भिन्न छे. देहनुं कार्य देह करे ने आत्मानुं कार्य आत्मा करे–एम ज्ञानी बंनेना कार्योने
भिन्न भिन्न देखे छे; अज्ञानी तो ‘हुं बोल्यो, हुं चाल्यो’–एम आत्मा अने शरीर
बंनेना कार्योने एकपणे ज देखे छे. धर्मात्मा जाणे छे के शरीर अने संयोगो ते बधा
माराथी जुदा छे, ते बधा अहीं पड्या रहेशे, मारी साथे एक पगलुं पण नहि आवे;
मारा श्रद्धा–ज्ञान–आनंद ज मारी साथे सदा रहेनारा छे. –आवा भानपूर्वक धर्मी श्रद्धा–
ज्ञानने साथे लई जाय छे एटले के समाधि– मरण करे छे. शरीरना त्याग–ग्रहणने ते
वस्त्रना त्याग–ग्रहणनी माफक जाणे छे. झूंपडीना नाशथी माणस मरी जतो नथी तेम
आ शरीररूपी झूंपडीना नाशथी कांई आत्मानो नाश थतो नथी. –आवुं भेदज्ञान करीने
ज्ञानस्वरूप आत्मानी भावना जेणे भावी छे एवा धर्मात्माने मरण प्रसंगे पण
समाधि ज रहे छे.
प्रभो! एकवार द्रष्टिनी गुलांट मारीने आम अंतरमां चैतन्यस्वभाव उपर
नजर मांड. आ देह अने संयोगो ए कोई तने शरणुं नहि आपे, माटे तेनी द्रष्टि छोड,
ने शरणभूत एवा चैतन्यने ज द्रष्टिमां ले...तो तने गमे ते क्षणे चैतन्यना शरणे
समाधि ज रहेशे.
।। ७७।।
हवे आ ७८ मी गाथा सरस छे; तेमां कहे छे के जे जीव व्यवहारनो–रागादिनो
आदर करतो नथी ते ज आत्मबोधने पामे छे, अने जे जीव व्यवहारनो आदर करे छे
ते जीव आत्मबोध पामतो नथी.
[सूचना: शरतचूकथी आ लेखमाळाना बे लेखो आ एक ज अंकमां छपाई
गया छे.]
मोक्षनी स्थिति अनंतकाळनी होय छे, पण बंधनी स्थिति अनंतकाळनी
होती नथी. कोई पण बंधन असंख्यात वर्ष करतां वधारे स्थितिनुं होई शके
नहि...अमुक काळे छूटी ज जाय, केमके ते आत्मस्वरूप नथी.
* * *
देहरहित एवा सिद्धपदनी स्थिति अनंतकाळनी छे, पण कोई देहनी स्थिति
अनंतकाळनी होती नथी, मर्यादितकाळे ते छूटी जाय छे; ––केमके देह ते जीव नथी.
* * *