परमार्थ स्वभावने ध्येय नथी बनाव्युं; तेथी परमार्थ स्वभावने तो ते आदरतो नथी,
तेमां तो ते उद्यमी थतो नथी ने रागनो आदर करीने तेमां ज उद्यमी रहे छे–तेमां ज तत्पर
रहे छे. ज्ञानीनी द्रष्टिनुं ध्येय पलटी गयुं छे, राग होय छतां तेनुं ध्येय चिदानंद स्वभाव
तरफ वळी गयुं छे, तेमां ज ते तत्पर छे, तेनो ज उद्यमी छे, रागने ते हेय जाणे छे, तेमां
ते अतत्पर छे. जुओ, आमां रुचिनुं वलण कई बाजु ढळे छे तेनी वात छे. आत्माना
स्वभाव तरफ रुचिनुं वलण छे के राग तरफ रुचिनुं वलण छे तेना उपर धर्मी–अधर्मीनुं
माप छे. अहो, आवी सरस चोकखी हितनी वात करी होवा छतां, ते सांभळीने मूढ जीवो
कहे छे के “अरे, तमे व्यवहार उडाडो छो. व्यवहारथी धर्म नथी मनावता माटे तमे
व्यवहारने ऊडाडो छो!” –अरे शुं थाय? अत्यारे काळ ज एवो छे. आगळना धर्मकाळमां
तो धर्मात्मा पर ज्यां संकट पडे त्यां देवो घणीवार सहाय करवा आवता ने धर्मनो विरोध
करनारने दंड देता; पण अत्यारे तो कोई पूछनार नथी; ऊलटा ‘चोर कोटवाळने दंडे’
एवी स्थिति थई पडी छे. छतां जे सत्य छे ते तो सत्य ज रहेशे, सत्य कांई फरवानुं नथी.
लोकोने न बेसे ने घणा विरोध करे तेथी कांई सत्यनुं स्वरूप बदलवानुं नथी. माटे जेणे
सत्य समजीने आत्मानुं हित करवुं होय तेणे आ वात मान्ये ज छूटको छे.
छे, तथा जे जीव रागादिमां धर्म मानीने तेमां ज तत्पर छे ते अज्ञानी जीव रागमां ज
तत्पर छे, ते रागमां ज जागे छे एटले के रागने ज आराधे छे, पण रागरहित चिदानंद
स्वभावने ते आराधतो नथी, तेमां तो ते ऊंघे छे.
जेने रागादि व्यवहारमां तत्परता–आदरबुद्धि छे तेने आत्माना चैतन्यस्वभावमां
तत्परता–आदरबुद्धि नथी. चैतन्यस्वभाव अने राग ए बंने एकबीजाथी विरुद्ध छे,
एटले ते बंनेनी रुचि के आदरबुद्धि एक साथे रही शकती नथी. चैतन्य स्वभावनी
सन्मुख जेनी परिणति छे एवो सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा रागादि लौकिक व्यवहारमां उदासीन
रहे छे–तेमां आदरबुद्धि करतो नथी. ते रागमां धर्म मानीने तेमां