छे, लव–कुश रडे छे...राम कहे छे के हे देवी! आ लक्ष्मण खातर...ने आ लव–कुश जेवा
पुत्र खातर तमे राजमां पाछा आवो. सीताजी कहे छे के: आ संसारथी हवे बस थई!
संसारना रंग अमे जोई लीधा...हवे तो अर्जिका थईने आत्मानुं हित साधशुं...अमे
अमारा अंतरंग चैतन्यतत्त्वने ज आराधशुं. अमे अमारा चैतन्यने ऊजाळवा आ
संसारनो त्याग करीए छीए, हवे अमे स्वरूपमां ठरशुं, हवे बीजुं कांई अमारे जोईतुं
नथी. परभावोने अमे अमारा स्वरूपथी बाह्य जाण्या हता ते परभावोने छोडवानो ने
चैतन्यना आनंदमां ठरवानो हवे अमे उद्यम करशुं. –आम कहीने महा वैराग्यपूर्वक
माथाना सुंवाळा रेशम जेवा वाळ ऊखेडीने रामना चरण तरफ फेंके छे...अने ए द्रश्य
देखतां राम मूर्छाथी बेभान थई जाय छे.
आ संसारथी हवे बस थाव...बस थाव...अमारा अंतरंगतत्त्व सिवाय बीजुं कोई
बाह्यतत्त्व अमने शरणरूप नथी. रागादि परभावो अमारा स्वरूपथी बाह्य छे, ते कोई
अमने शरणरूप नथी. हवे अमे अमारा अंतरंग चैतन्यस्वरूपमां ठरीने रागादि
परभावोने छोडवानो अभ्यास करशुं.
आ एक ज मार्ग छे के–शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्माने ज अंतरंगमां देखवो, ने रागादि
समस्त परभावोने पोताथी बाह्यपणे देखवा. जेने पोताथी बाह्य देखे तेनो आदर केम करे?
चैतन्यतत्त्व ज जगतनुं उत्कृष्ट प्रमेय छे, स्वज्ञेय होवाथी ते मुख्य प्रमेय छे, आवा
प्रमेयने जाणवुं ते ज ‘प्रमेयकमलमार्तंड’ नुं खरूं ज्ञान छे. अने जे जीवो आवा स्व–
प्रमेयने नथी जाणता तेओ ‘प्रमेयकमलमार्तंड’ने जाणता नथी. माटे पोताना आत्माने
अंतरंगमां देखीने तेने प्रमेय बनाववो ने रागादि परज्ञेयोने बाह्यपणे देखवा, –आवा
भेदज्ञानवडे आत्मामां एकाग्रतानो प्रयत्न करवो ते ज मोक्षनो उपाय छे.