Atmadharma magazine - Ank 279
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : पोष : २४९३
पामीने दीक्षा लेवा तैयार थाय छे ने राजमां आववानी ना पाडे छे. त्यारे लक्ष्मण रडे
छे, लव–कुश रडे छे...राम कहे छे के हे देवी! आ लक्ष्मण खातर...ने आ लव–कुश जेवा
पुत्र खातर तमे राजमां पाछा आवो. सीताजी कहे छे के: आ संसारथी हवे बस थई!
संसारना रंग अमे जोई लीधा...हवे तो अर्जिका थईने आत्मानुं हित साधशुं...अमे
अमारा अंतरंग चैतन्यतत्त्वने ज आराधशुं. अमे अमारा चैतन्यने ऊजाळवा आ
संसारनो त्याग करीए छीए, हवे अमे स्वरूपमां ठरशुं, हवे बीजुं कांई अमारे जोईतुं
नथी. परभावोने अमे अमारा स्वरूपथी बाह्य जाण्या हता ते परभावोने छोडवानो ने
चैतन्यना आनंदमां ठरवानो हवे अमे उद्यम करशुं. –आम कहीने महा वैराग्यपूर्वक
माथाना सुंवाळा रेशम जेवा वाळ ऊखेडीने रामना चरण तरफ फेंके छे...अने ए द्रश्य
देखतां राम मूर्छाथी बेभान थई जाय छे.
सीताजी ज्यारे दीक्षा ल्ये छे त्यारे लोको रडे छे, राम–लक्ष्मण रडे छे, लव–कुश
रडे छे, प्रजाजनो रडे छे; बधाय सीताने घणा विनवे छे, पण सीताजी कहे छे के अरे,
आ संसारथी हवे बस थाव...बस थाव...अमारा अंतरंगतत्त्व सिवाय बीजुं कोई
बाह्यतत्त्व अमने शरणरूप नथी. रागादि परभावो अमारा स्वरूपथी बाह्य छे, ते कोई
अमने शरणरूप नथी. हवे अमे अमारा अंतरंग चैतन्यस्वरूपमां ठरीने रागादि
परभावोने छोडवानो अभ्यास करशुं.
जुओ, आ एक ज मार्ग छे. पुरुष हो के स्त्री हो, रोगी हो के नीरोगी हो, राजा
हो के रंक हो, स्वर्गमां हो के नरकमां हो, वृद्ध हो के बाळक हो, –बधायने माटे हितनो
आ एक ज मार्ग छे के–शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्माने ज अंतरंगमां देखवो, ने रागादि
समस्त परभावोने पोताथी बाह्यपणे देखवा. जेने पोताथी बाह्य देखे तेनो आदर केम करे?
देहादिकने बाह्यपणे देखवा ने चैतन्यस्वरूप आत्माने अंतरंगपणे देखीने तेमां
ज एकाग्रतानो अभ्यास करवो, –आवो अभ्यास ज मुक्तिनुं कारण छे. आवुं अंतरंग
चैतन्यतत्त्व ज जगतनुं उत्कृष्ट प्रमेय छे, स्वज्ञेय होवाथी ते मुख्य प्रमेय छे, आवा
प्रमेयने जाणवुं ते ज ‘प्रमेयकमलमार्तंड’ नुं खरूं ज्ञान छे. अने जे जीवो आवा स्व–
प्रमेयने नथी जाणता तेओ ‘प्रमेयकमलमार्तंड’ने जाणता नथी. माटे पोताना आत्माने
अंतरंगमां देखीने तेने प्रमेय बनाववो ने रागादि परज्ञेयोने बाह्यपणे देखवा, –आवा
भेदज्ञानवडे आत्मामां एकाग्रतानो प्रयत्न करवो ते ज मोक्षनो उपाय छे.
।। ७९।।