: १८ : आत्मधर्म : पोष : २४९३
ऋषभदेव––गर्भकल्याणक
हवे छ महिना पछी भगवान ऋषभदेव स्वर्गमांथी च्यवीने आ अयोध्यापुरीमां
अवतरशे, एम जाणीने देवोए घणा आदरपूर्वक आकाशमांथी रत्नवर्षा शरू करी. जाणे
के ऋषभदेवना आगमन पहेलां ज तेमनी सम्पदा आवी गई होय–एवी सुशोभित
करोडो रत्नोनी तथा सुवर्णनी वृष्टि रोजरोज थती हती. तीर्थंकरोनो एवो ज कोई
आश्चर्यकारी महान प्रभाव छे. पंदर महिना सुधी ए रत्नवृष्टि चालु रही. ए
गर्भावतरण–उत्सव वखते आखा लोकमां हर्षकारी क्षोभ फेलाई गयो हतो. माता
मरूदेवी रजस्वला थया वगर पुत्रवती थई हती.
एक मंगलदिवसे रात्रिना पाछला पहोरमां मरूदेवीमाताए तीर्थंकरदेवना
जन्मने सूचित करनारा तथा उत्तम फळ देनारा १६ मंगल स्वप्नो देख्या, तथा
सुवर्णसमान एक उत्तम वृषभ (बळद) पोताना मुखमां प्रवेश करतो जोयो.
प्रभात थयुं; राजमहेलमां मंगल वाजां वागवा मांडया, ने सेविकाओ मंगल
गीत गावा लागी के–‘हे माता! जागो; आपनो जागवानो समय थयो छे.
पंचपरमेष्ठीना ध्याननो आ समय छे; पंचपरमेष्ठीना ध्यानवडे तमारुं प्रभात सदा
मंगलमय हो, तमे सेंकडो कल्याणने प्राप्त हो, अने जेम पूर्व दिशा झगझगता
सूर्यने जन्म आपे छे तेम तेम जगतना प्रकाशक एवा त्रिलोकदिपक तीर्थंकरपुत्रने
उत्पन्न करो.’
आवा मंगलपूर्वक मरूदेवीमाता जाग्या; उत्तम शुभ स्वप्नो देखवाथी तेमने
अतिशय आनंद थई रह्यो हतो, अने आखुंय जगत अतिशय प्रमोदभरेलुं लागतुं हतुं.
त्यारबाद राजमहेलमां जईने नाभि–महाराजाने पोताना मंगल–स्वप्नोनी वात
करी: हे देव! में आजे रात्रे पाछला पहोरे आश्चर्यकारी फळ देनारा १६ स्वप्नो जोया छे,
तेनुं फळ शुं छे? ते आपना श्रीमुखथी सांभळवानी मारी ईच्छा छे.
त्यारे नाभिराय–महाराजाए अवधिज्ञानवडे ते स्वप्नोनुं उत्तम फळ जाण्युं अने
कहेवा लाग्या के हे देवी, सांभळो! आ भरतक्षेत्रना प्रथम तीर्थंकरदेवनो आत्मा
स्वर्गमांथी तमारी कुंखे अवतर्यो छे, तेथी तमे ‘रत्नकुंखधारिणी’ बन्या छो. आपे
जोयेला मंगल स्वप्नो एम सूचवे छे के आपनो पुत्र महान गुणसम्पन थशे. ते आ प्रमाणे–