Atmadharma magazine - Ank 279
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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दुनियामां माता–पुत्र, अथवा भाई–बेननो संबंध निर्दोष ने
उत्तम छे, पण साधर्मीनो संबंध तो एना करतांय घणुं ऊंचुं स्थान
धरावे छे,–एटले तो प्रसिद्ध छे के ‘साचुं सगपण साधर्मीतणुं.’
एनी तुलनामां आवे एवो कोई संबंध होय तो ते एक ज छे–गुरु
अने शिष्यनो; –परंतु गुरु–शिष्यनो आ संबंध पण अंते तो
साधर्मीना सगपणमां ज समाय छे, केमके एक ज धर्मने
माननाराओमां जे मोटा ते गुरु, ने नानो ते शिष्य. एटले ‘साचुं
सगपण साधर्मीतणुं’–एनी सौथी उत्कृष्टता छे.
एक राष्ट्रमां रहेनारा विधर्मीओ पण राष्ट्रीयभावना वडे
एकबीजाने भाई भाई समजवामां गौरव अनुभवे छे, तो एक
जिनशासननी छायामां रहेनारा, ने एक ज देव गुरु धर्मने
उपासनाराओमां धार्मिकभावना वडे परस्पर जे बंधुत्वनुं निर्दोष
वात्सल्य वर्ततुं होय छे, अने ‘आ मारो साधर्मी भाई–बहेन के
माता छे’ एवुं कहेतां एना अंतरमां जे निर्दोष भावना अने धार्मिक
गौरव वर्ते छे–तेनी तुलना जगतनो एकेय संबंध करी शके
तेम नथी.
आपणो धर्म तो वीतरागधर्म! तेमां साधर्मी–साधर्मीना
संबंधनी उत्कृष्टतानुं बीजुं कारण ए छे के तेमां एकबीजाना
संबंधथी मात्र धार्मिकभावनानी पुष्टि सिवाय बीजी कोई आशा के
अभिलाषा होती नथी. मने जे धर्म वहालो लाग्यो ते ज धर्म मारा
साधर्मीने वहालो लाग्यो, एटले तेणे मारी धर्मभावनाने पुष्ट
करी...ने एनी धर्मभावनाने हुं पुष्ट करुं. –आम अरस्परस
धर्मपुष्टिनी निर्दोष भावना वडे शोभतुं धर्मवात्सल्य जगतमां
जयवंत हो.
[आपणा आत्मधर्मना चार उद्देशमां एक “वात्सल्यनो
विस्तार” ए उद्देश छे. तेने अनुलक्षीने “आपणे सौ साधर्मी” ए
लेख अहीं रजु थाय छे. समस्त साधर्मी बंधुओ पण आ संबंधमां
पोताना उत्तम विचारो लखी मोकले एवुं हार्दिक निमंत्रण छे.
वात्सल्यपोषक उत्तम विचारो अहीं रजु थता रहेशे.)