Atmadharma magazine - Ank 279
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९३ आत्मधर्म : ३ :
प्रकाशमान स्वभाव छे. दीवो पोते ज प्रकाशी रह्यो छे के हुं दीवो छुं, दीवाने देखवा माटे
बीजा दीवानी जरूर नथी पडती, तेम आ आत्मा चैतन्यप्रकाशी दीवो पोते ज पोताने
स्वसंवेदनमां प्रकाशी रह्यो छे, ज्ञान पोते ज पोताने प्रकाशी रह्युं छे के हुं ज्ञान छुं, –आ
रीते आत्मा स्वयं प्रकाशमान छे, एने प्रकाशवा माटे कोई बीजा ज्ञाननी जरूर नथी
पडती. रागनी के ईन्द्रियोनी तो वात ज क््यां रही? ते तो अंधकाररूप छे,
चेतनप्रकाशमां तेनो अभाव छे.
कोई कहे के आत्मा पोते पोताने न जाणे. –अरे भाई! तो तो आत्मा स्वयं
प्रकाशमान न रह्यो! अहीं तो भगवान कहे छे के आत्मा स्वयं प्रकाशमान छे; अने
पोताने पण ज्ञानने अंतर्मुख करीने स्पष्ट स्वसंवेदन थाय छे के मारो आत्मा मारा
वेदनमां आव्यो. आत्मा उपयोगस्वरूप छे, तेना उपयोगमां उपयोग ज छे ने
उपयोगमां रागादि नथी–एम धर्मी जीव भेदज्ञान वडे पोते पोताने स्पष्ट अनुभवे छे.
हा, एटलुं खरुं के रागवडे अथवा ईन्द्रियो तरफना ज्ञानवडे आत्मा कदी अनुभवमां
आवी शके नहि; पण रागथी ने ईन्द्रियोथी पार एवा अन्तर्मुख उपयोग वडे तो
आत्मा पोते पोताने साक्षात् अनुभवे छे, ने ए अनुभवमां परमआनंद थाय छे.
आवो साक्षात् अनुभव करवो ते प्रकाशशक्तिनुं कार्य छे.
रागादि आस्रवोमां एवी ताकात नथी के पोते पोताने प्रकाशे; ज्ञानमां ज एवी
ताकात छे के पोते पोताने प्रकाशे. रागने खबर नथी के हुं राग छुं, एने प्रकाशनारुं तो
ज्ञान छे. ज्ञानने खबर छे के हुं ज्ञान छुं ने आ राग छे; एम स्व–पर बंनेने प्रकाशनारुं
ज्ञान ज छे.
श्रीगुरुना उपदेशथी आत्मानुं स्वरूप समजीने जे रत्नत्रयरूप परिणम्यो ने
‘आत्माराम’ थयो तेने पोताना स्वरूपनुं संचेतन केवुं होय ते बतावतां ३८ मी
गाथामां कहे छे के हुं चिन्मात्रज्योति आत्मा खरेखर आत्म–प्रत्यक्ष छुं, मारा आत्माना
स्वसंवेदन–प्रत्यक्षथी हुं मने अनुभवुं छुं. चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने पण एवुं
स्वसंवेदन थयुं छे. अहा, आ स्वसंवेदननो अपार महिमा छे, बधा गुणोनो रस
स्वसंवेदनमां समाय छे; स्वसंवेदनवडे मोक्षनां द्वार खुली जाय छे. शरूआतना
मंगलाचरणमां ज ‘
स्वानुभूत्या चकासते’ एम कहीने शुद्ध आत्मा स्वानुभूति वडे
प्रकाशे छे एटले के अनुभवमां आवे छे–एम बताव्युं हतुं. अहां प्रकाशशक्तिमां