Atmadharma magazine - Ank 280
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४९३ आत्मधर्म : २१ :
[पोष वद २–३ ना रोज गुरुदेव अमरेली पधार्या
त्यारे समयसार कळश १८१ उपरना प्रवचनमांथी]
अमरेलीमां शुं वांचीशुं–एनो गुरुदेव विचार करता हता, पुस्तक लईने
पानुं फेरव्युं त्यां तो ‘प्रज्ञाछीणी’ नीकळी...ने तरत गुरुदेवने थयुं के अमरेलीमां
कुदरते आ ‘प्रज्ञाछीणी’ आवी छे एटले ते ज अहीं वांचीए. ते अनुसार
प्रज्ञाछीणीना कळश १८१ उपर त्रण प्रवचनो थया, तेनो आ नमुनो छे.
आ देहथी भिन्न आत्मा छे तेनी वात छे. जेम श्रीफळमां छोता, काचली ने राती
छाल त्रणेथी जुदुं सफेद–मीठुं टोपरुं छे; तेम आ शरीररूपी छोतां, जडकर्म रूपी काचलां
ने रागादिरूपी रताश,–ए त्रणेथी जुदुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे, आवा ज्ञान–आनंदस्वरूप
आत्माने केम ओळखवो? प्रज्ञाछीणी वडे आत्मा ओळखाय छे. प्रज्ञाछीणी एटले
आत्माने अने रागादिने भिन्न जाणनारुं ज्ञान ते ज मोक्षनो उपाय छे.
श्रीमद्राजचंद्रजीने नानी उंमरमां ज आत्माना पूर्वभवनुं ज्ञान थयुं हतुं. १६
वर्षनी अल्पवयमां तो तेओ लखे छे के–
हुं कोण छुं? क््यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरूं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्या,
तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्यां.
हुं कोण छुं? शुं आ देह हुं छुं? ना; हुं तो देहथी जुदो जाणनार छुं. क््यांथी
थयो?– के अनादिनो छुं, नित्य छुं. ज्ञान ने आनंद ते मारुं खरुं स्वरूप छे. –आम
यथार्थस्वरूपनो विचार करतां आत्मानुं ज्ञान थाय छे, ते अपूर्व वस्तु छे.
भाई, तारा आत्माने जाण्या वगर तें बहारमां ‘हुं करुं हुं करुं’ एम मानीने
मिथ्या अभिमान सेव्युं छे, ने स्वतत्त्वने तुं भूल्यो छे. तारा ज्ञान–आनंदनो