Atmadharma magazine - Ank 280
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : माह : २४९३
जसदणमां भेदज्ञान
वेदीप्रतिष्ठा प्रसंगे पू. गुरुदेव पोष वद पांचमथी आठम जसदण
पधार्या ते प्रसंगे थयेला प्रवचनोमांथी. (समयसार गा. ७२)
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प्रथम दिवसे भेदज्ञाननी भूमिकानो उपोद्घात करतां गुरुदेवे जीवनी नित्यता,
अज्ञानभावे पुण्य–पापथी थतुं स्वर्ग–नरकादि चार गतिमां भ्रमण अने दुःख, देह अने
आत्मानी भिन्नता, तथा सत् श्रवणनी दुर्लभता वगेरे समजावीने आस्तिक्यतानुं
प्रतिपादन कर्युं, ने धर्मनी जिज्ञासा जगाडी; हवे ए दुःखथी छूटीने आनंदनी प्राप्ति केम
थाय–तेनी रीत समजावे छे. शास्त्रभाषामां कहीए तो भेदज्ञान वडे बंधनो निरोध केम
थाय? ते रीत समजावे छे.
भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे ते आनंदनो सागर छे; ते आनंदना स्वाद पासे
धर्मीने जगतनी कोई चीजनी महत्ता भासती नथी. अरे जीव! तने जगतना पदार्थोनुं
आश्चर्य लागे छे, ने परम महिमावंत एवा आत्मस्वभावनुं तने आश्चर्य केम नथी
लागतुं? एकवार आश्चर्य लावीने एने देख तो खरो! आ आत्मानुं स्वरूप समजी
शकाय तेवुं छे. माटे, ‘नहि समजाय’ एम मानीने अटकी जवुं नहि पण उत्साहथी ते
समजवानुं लक्ष राखवुं. वात जराक झीणी तो छे पण जन्म–मरणनो अंत लाववा माटे
अत्यंत जरूरनी छे. –एम सत्यनो महिमा लावीने समजवानो उद्यम करवो. आत्मानुं
आवुं स्वरूप ओळखतां ते क्षणे ज अंदर आनंदनो अनुभव थाय छे, ने अज्ञान छूटी
जाय छे एटले अज्ञानथी जे बंधन थतुं ते बंधन अटकी जाय छे. –आवुं भेदज्ञान ते
धर्म छे.
भाई, आत्माना स्वरूपने तें कदी जाण्युं नथी; ने आत्मस्वरूपनी साची वात
सांभळवा मळवी पण बहु दुर्लभ छे. देवो पण स्वर्गमांथी जे वात सांभळवा नीचे
मनुष्यलोकमां आवे छे; जेनुं श्रवण पण दुर्लभ एना अनुभवनी शी वात?