Atmadharma magazine - Ank 280
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : माह : २४९३
जेने आवा आनंदस्वरूप आत्मानुं ज्ञान थाय तेने आत्माथी बहार बीजे क््यांय
सुख भासे नहि, एटले ईन्द्रियसुखोमां क््यांय तेने मग्नता न रहे, ईन्द्रियसुखोनो प्रेम
छूटीने चैतन्यसुखनो प्रेम थयो छे, चैतन्यसुखनो स्वाद तेणे चाख्यो छे. आत्माना
सुखनो स्वाद जेणे जाण्यो नथी तेने ज पुण्यना फळमां सुख लागे छे. पण ज्ञानी तो
तेमां किंचित् सुख देखता नथी; सुखनो भंडार तो पोतामां देख्यो छे. प्रतिकूळतामां
दीनता के अनुकूळतामां अधिकता तेने लागती नथी, एने तो पोताना चैतन्यनी ज
अधिकता भासे छे. अरे, मारा चैतन्यनी महत्ता पासे जगतनी महत्ता शी?
सर्वज्ञपदनी महत्तानी अज्ञानीने ओळखाण नथी; ने ओळखाण वगर स्तुति
करवा जाय तो ते साची स्तुति क््यांथी करी शके! परंतु, अहीं तो कहे छे के हे प्रभो!
आपने ओळखवा छतां आपना अनंतगुणोनी पूरी स्तुति अमाराथी थई शकती नथी.
प्रभो, अल्पज्ञानवडे आपना अपार ज्ञाननी स्तुति करवी –ते तो कुवानुं देडकुं ठेकडो
मारीने समुद्रनुं माप करवा चाहे –एना जेवुं छे. विकल्पवडे आपनी स्तुति पूरी थाय
नहि, छतां प्रभो! आपना गुणोनी प्रीतिने लीधे भक्तिवश स्तुति करवा ऊभो थयो छुं.
प्रभो! आपनी वीतरागी भक्तिना फळमां तो केवळज्ञानरूप आत्मलक्ष्मी मळशे; ने
साथे शुभराग बाकी रहेशे तेनाथी एवा लोकोत्तर पुण्य बंधाशे के ज्यां जशुं त्यां लक्ष्मी
आज्ञाकारी थईने सामी आवशे. –पण प्रभो! ए रागनुं ने ए पुण्यनुं अमने बहुमान
नथी, अमने तो वीतरागी– गुणोनुं ज बहुमान छे. जे रागनुं बहुमान करे के तेना
फळने ईच्छे, तो तेने वीतरागनो भक्त केम कहेवाय? वीतरागनो भक्त रागने ईच्छे
नहि.
भक्त कहे छे–हे ऋषभदेव प्रभो! आप ज्यारे सर्वार्थसिद्धिमां बिराजता हता
त्यारे ते विमान शोभतुं हतुं, पण ज्यारे आप सर्वार्थसिद्धिने छोडीने आ मनुष्यलोकमां
अवतर्या त्यारे सर्वार्थसिद्धिनी शोभा आपना वगर झांखी पडी गई, ने आ
मनुष्यलोकनी शोभा वधी गई. –एटले हे नाथ! अमने सर्वार्थसिद्धिनो महिमा नथी,
अमने तो आपनो महिमा छे. (ने साथे साथे भगवान पूर्वभवमां सर्वार्थसिद्धिमां
हता–ते पण बतावी दीधुं.)
अरे जीव! भगवानने ओळखीने तारा आत्मामां चैतन्यनो एक कणियो