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छूटीने चैतन्यसुखनो प्रेम थयो छे, चैतन्यसुखनो स्वाद तेणे चाख्यो छे. आत्माना
सुखनो स्वाद जेणे जाण्यो नथी तेने ज पुण्यना फळमां सुख लागे छे. पण ज्ञानी तो
तेमां किंचित् सुख देखता नथी; सुखनो भंडार तो पोतामां देख्यो छे. प्रतिकूळतामां
दीनता के अनुकूळतामां अधिकता तेने लागती नथी, एने तो पोताना चैतन्यनी ज
अधिकता भासे छे. अरे, मारा चैतन्यनी महत्ता पासे जगतनी महत्ता शी?
आपने ओळखवा छतां आपना अनंतगुणोनी पूरी स्तुति अमाराथी थई शकती नथी.
प्रभो, अल्पज्ञानवडे आपना अपार ज्ञाननी स्तुति करवी –ते तो कुवानुं देडकुं ठेकडो
मारीने समुद्रनुं माप करवा चाहे –एना जेवुं छे. विकल्पवडे आपनी स्तुति पूरी थाय
नहि, छतां प्रभो! आपना गुणोनी प्रीतिने लीधे भक्तिवश स्तुति करवा ऊभो थयो छुं.
प्रभो! आपनी वीतरागी भक्तिना फळमां तो केवळज्ञानरूप आत्मलक्ष्मी मळशे; ने
साथे शुभराग बाकी रहेशे तेनाथी एवा लोकोत्तर पुण्य बंधाशे के ज्यां जशुं त्यां लक्ष्मी
आज्ञाकारी थईने सामी आवशे. –पण प्रभो! ए रागनुं ने ए पुण्यनुं अमने बहुमान
नथी, अमने तो वीतरागी– गुणोनुं ज बहुमान छे. जे रागनुं बहुमान करे के तेना
फळने ईच्छे, तो तेने वीतरागनो भक्त केम कहेवाय? वीतरागनो भक्त रागने ईच्छे
नहि.
अवतर्या त्यारे सर्वार्थसिद्धिनी शोभा आपना वगर झांखी पडी गई, ने आ
मनुष्यलोकनी शोभा वधी गई. –एटले हे नाथ! अमने सर्वार्थसिद्धिनो महिमा नथी,
अमने तो आपनो महिमा छे. (ने साथे साथे भगवान पूर्वभवमां सर्वार्थसिद्धिमां
हता–ते पण बतावी दीधुं.)