: ४ : आत्मधर्म : माह : २४९३
❁❁❁❁❁❁❁❁❁❁❁ परम शांति दातारी ❁❁❁❁❁❁❁❁❁❁❁
(अंक २७९ थी चालु) (लेखांक ४६)
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भगवानश्री पूज्यपादस्वामी रचित समाधिशतक उपर पूज्यश्री
कानजीस्वामीनां ध्यात्मभावना भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
[वीर सं. २४८२ अषाड वद १४ रविवार]
(समाधिशतक गा. ८०)
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जेने शरीर अने आत्मानुं भेदविज्ञान थई गयुं छे एवा अंतरात्माने
शरूआतनी अभ्यासदशामां आ जगत केवुं लागे छे? अने पछी चैतन्यना अभ्यासमां
एकाग्र थतां आ जगत केवुं लागे छे? ते बतावे छे–
पूर्व द्रष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवज्जगत्।
स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठपाषाणरूपवत्। ८०।
जेने पोताना आत्मानुं सम्यग्दर्शन थई गयुं छे एवा अंतरात्माने
प्राथमिकदशामां तो आ जगत उन्मत्त जेवुं लागे छे, के ‘अरेरे! आ जगत
चैतन्यस्वरूपना चिंतनथी भ्रष्ट थईने शुभ–अशुभ चेष्टाओमां ज उन्मत्तनी माफक
प्रवर्ती रह्युं छे.’ पण पछी ते अंतरात्मा–योगीने पोताना स्वरूपमां स्थिरतानो अभ्यास
करतां आ जगत काष्ठ–पाषाणना रूप जेवुं चेष्टारहित देखाय छे. पोताना स्वरूपमां
लीन थतां जगत संबंधी चिंता ज छूटी जाय छे.– आ रीते अंतरात्मानी बे भूमिकाओ
अहीं बतावी छे.
आत्मस्वरूपनुं सम्यक्भान थयुं होवा छतां धर्मीने शरूआतमां–रागनी
भूमिकामां एवो विकल्प आवे छे के अरे! आ जगतना जीवो आत्मस्वरूपने भूलीने
संसारमां परिभ्रमण करी रह्या छे, तेओ अज्ञानथी उन्मत्त जेवा थई गया छे के
परद्रव्यने पोतानुं मानी रह्या छे ने स्वतत्त्वने भूली रह्या छे. –आ रीते ज्ञानीने
करुणाबुद्धिथी जगत गांडा जेवुं लागे छे. अरे! आवा आत्मस्वरूपने भूलीने जगत
भ्रमणामां पड्युं छे! जगतथी जुदो –जगत उपर तरतो एवो जे पोतानो
चैतन्यस्वभाव तेनुं भान पोते तो कर्युं छे, तेने