जीवो मोहथी मूर्छाई गयेला गांडा छे, मोहरूपी भूत तेमने वळग्युं छे.
जगत प्रत्ये लक्ष जतुं नथी, सहज उदासीन परिणति वर्ते छे. चैतन्यतत्त्वथी बहार बधुं
माराथी भिन्न छे –एम तो पहेलेथी जाण्युं ज छे, ने पछी तेमां स्थिरतानो अभ्यास
करतां तेने जगत संबंधी चिंता छूटी जाय छे; स्वरूपमां जोडाण थयुं छे त्यां जगत
चेष्टारहित काष्ठ–पाषाण जेवुं लागे छे, एटले के परसंबंधी चिंता तेने थती नथी.
घेराई गयेला छे, तेमनी चेष्टाओ उन्मत्त जेवी छे. जो के जगत आखुं ज्ञेयपणे ज छे, ते
कांई मने रागद्वेषनुं कारण नथी एवुं ज्ञानीने भान होवा छतां रागनी भूमिकामां एवो
विकल्प आवी जाय छे के अरेरे! चैतन्यनिधानने भूलीने आ जगत बहावरानी जेम
बहारमां फांफां मारी रह्युं छे, तेमनी चेष्टाओ उन्मत्त जेवी छे. –पण पछी ज्ञानीने ज्यां
विशेष लीनता थाय छे त्यां परना अवलंबन वगर सहेजे उदासीनता वर्ते छे; त्यां पर
संबंधी चिंता ज जागती नथी. पोते अंतरमां स्थिर थईने चैतन्यप्रतिमा थई गयो छे
त्यां जगत निःचेष्ट भासे छे, आखुं जगत ज्ञेयपणे ज भासे छे. ‘परजीवो अज्ञानथी
उन्मत्त वर्ते छे–तेमां मारे शुं?’– एवो उदासीनतानो विकल्प पण त्यां नथी रहेतो, त्यां
तो स्वरूपमां जोडाण वर्ते छे तेथी परप्रत्ये परम उदासीनता सहेजे वर्ते छे.
एवी समाधि जामे छे के जगत संबंधी चिंता थती नथी, ‘अरेरे! आवुं परम
चैतन्यस्वरूप, तेने जगत केम नथी समजतुं’ एवो खेदभाव पण त्यां थतो नथी. आ
रीते अंतरात्मानी बे भूमिका सिद्ध करी छे–एक तो विकल्पभूमिका, अने बीजी स्वरूपमां
स्थिरतारूप भूमिका; विकल्पभूमिकामां जगत प्रत्ये करुणा अने खेद आवी जाय छे के
अरे! आ जगतना प्राणीओ बिचारा आत्मस्वरूपने भूलीने उन्मत्तनी जेम भवभ्रमण
करी रह्या छे...जडनी क्रियामां ने रागमां धर्म मानीने तेओ मोहथी गांडा थई गया
छे...चैतन्यस्वभावनो विवेक तेओ चूकी गया छे. प्रथमदशामां अंतरात्माने आवो
विकल्प आवे तेथी कांई ते अज्ञानी नथी,