होवाथी ज्ञानीने एवो विकल्प आवी जाय छे. पछी चैतन्यमां स्थिरतानो विशेष
अभ्यास करीने ज्यां एकाग्रता थई त्यां एवो विकल्प पण रहेतो नथी, त्यां जगत
संबंधी चिंता ज नथी तेथी जगत अचेत जेवुं भासे छे एम कह्युं छे. जगतना बाह्य
पदार्थोमां मारा चेतननो अभाव छे, एम जाणीने अंतरमां एकाग्र थतां ज्ञानी पोताना
हता; त्यां रावणराजा त्यांथी नीकळ्यो...ज्यां वालीमुनि उपर विमान आव्युं त्यां
विमान थंभी गयुं. रावणे नीचे ऊतरीने जोयुं त्यां वालीमुनिने दीठा, तेमने जोतां ज
रावणने पूर्वनुं वेर जागृत थयुं ने क्रोध आव्यो; तेथी वालीमुनिनो नाश करवा माटे
विद्याना बळे कैलास नीचे जईने आखो कैलासपर्वत डगाववा मांडयो. ते वखते
ध्यानमांथी खसीने मुनिने एवी वृत्ति ऊठी के अरे! क्रोधनो मार्यो आ रावण आखा
पर्वतने हलावे छे ने अहींना रत्नमय जिनबिंबोनी असातना करे छे! –माटे
जराक पर्वत उपर दबाव्यो...त्यां तो त्रणखंडनो राजा रावण पर्वत नीचे भींसाणो ने
रूदन करवा लाग्यो.....पछी तो रावण राजाए पण माफी मागी, अने जिनबिंबनी
विराधना थई तेथी घणो पश्चात्ताप करीने ते जिनबिंब पासे एक महिना सुधी एवी
तो अद्भुत भक्ति करी के धरणेन्द्रनुं आसन चलायमान थई गयुं. आ बाजु वाली
मुनिराजे पण प्रायश्चित लीधुं छे. जुओ, मुनिदशामां आवो विकल्प आव्यो माटे ते
करवा जेवो छे–एम नथी. जो विकल्पने करवा जेवो माने तो तो ते मिथ्याद्रष्टि छे.
ज्ञानीने पोतानी अस्थिर भूमिकामां विकल्प आवी जाय छे पण ते विकल्पनेय
चैतन्यथी भिन्न जाणीने, आत्मामां स्थिर थवा मांगे छे. द्रढ अभ्यास वडे ज्यां
जैनशासननी विराधना करे छे’ एवो खेदनो विकल्प थतो नथी.–आवी वीतरागदशा
भेदज्ञानना द्रढ अभ्यासथी थाय छे. विकल्पनी भूमिकामां होवा छतां जो विवेक न करे
तो ते तो मूढ छे. पोते विकल्पभूमिकामां होय अने देव–गुरु–धर्म उपर कांई उपसर्ग
आवे तो त्यां धर्मीने ते उपसर्ग दूर करवानो भाव आव्या विना रहेतो नथी. पोताने
राग थतो होवा छतां जे विवेक नथी करतो ते तो मूढ छे. अहीं तो स्वरूपना
अनुभवमां एवी