Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : फागण : २४९३
खरेखर सांभळ्‌यो छे, केम के श्रीगुरु पण देहथी भिन्न आत्माने जाणीने तेमां ज
अंतर्मुख थवानुं कहे छे. बीजा पासेथी श्रवणनो शुभभाव हो, के बीजाने संभळाववानो
भाव हो, –ते कांई स्व–अभ्यास नथी, ते तो राग छे. ते रागनी भावनाथी मोक्ष माने
तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. कोई एम माने के “जगतना घणा जीवो जो्र अमारा निमित्ते धर्म
पामता होय तो अमारे भले संसारमां थोडो वखत रहेवुं पडे”–तो ते जीव मोटो मूढ छे,
तेने स्व–अभ्यासनी भावना नथी पण परने समजाववानी ने रागनी भावना छे, ऊंडे
ऊंडे जगत पासेथी धर्मना बहाने मान लेवानी तेनी भावना छे. ‘अमारुं भले गमे
तेम थाय पण अमारे तो बीजानुं हित करवुं छे’ –एवी वात सांभळीने साधारण लोको
तो खुशी थई जाय के वाह! आने केवी भावना छे! आ केवा परोपकारी छे! पण ज्ञानी
कहे छे के ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, तेने हजी भवभ्रमणनो भय थयो नथी; अरे, मारो
आत्मा आ चारगतिना भवभ्रमणथी केम छूटे –एवी तेने दरकार नथी; तेने परने
समजाववानी भावना छे पण आत्मानी भावना नथी. अरे, मारो आत्मा आत्मानी
भावना वगर अनादिकाळनी चारगतिना घोर दुःख भोगवी रह्यो छे, तेनाथी हवे मारो
छूटकारो केम थाय? –एम विचारीने धर्मी तो देहादिथी भिन्न पोताना आत्मानी ज
भावना भावे छे, ने तेमां ज एकाग्र थवानो अभ्यास करे छे. आत्मामां एकाग्रतानो
अभ्यास ज मोक्षनुं कारण छे. ए सिवाय परना अवलंबने श्रवण–मनन के धारणा ते
मोक्षनुं कारण नथी, ते तो मात्र विकल्प छे–राग छे. ने जो ते रागथी संवर–निर्जरारूप
धर्म थवानुं माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे; तेने रागनो अभ्यास छे पण आत्मानो अभ्यास
नथी. अरे जीव! श्रवण करवानो के बीजाने श्रवण कराववानो रागभाव ते आत्मा नथी
ने वाणीनो धोध वछूटे तेमां पण आत्मा नथी, आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप छे, –एम
ओळखीने अंतर्मुख ज्ञानानंद स्वभावनो अनुभव कर. ज्ञायकस्वरूपमां जेटली
एकाग्रता कर तेटलुं तारुं हित छे, ने ते ज मोक्षनुं कारण छे. वाणी के वाणी तरफनो
विकल्प ते कोई तने शरणरूप नहि थाय. तीर्थंकर परमात्मानी दिव्यध्वनि गणधरदेव
सांभळे छतां तेमने पण ते वाणी तरफनो जे विकल्प छे ते तो राग छे, ते कांई धर्म
नथी; पण अंतरमां रागरहित वीतरागी लीनता वर्ते छे ते ज धर्म छे ने ते ज मोक्षनुं
कारण छे. जुओ, संतो पोते एम कहे छे के हे जीव! अमारी वाणी तरफना वलणथी
तारुं हित नथी, तारुं हित तारा ज्ञायकस्वरूपमां वलणथी ज छे, माटे तुं तारा
स्वभावमां अंतर्मुख थईने तेनी श्रद्धा–ज्ञान कर, ने तेनो वारंवार अभ्यास करीने तेमां
एकाग्रथा, –आवा स्व–अभ्यासथी ज तारी मुक्ति थशे. ।। ८१।।
अंतरात्माए देहथी भिन्न आत्मानी केवी भावना करवी ते हवे कहेशे.