Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
एम विचारीने भगवाने ईन्द्रने याद कर्या के तरत ज ईन्द्रो अने देवो आवी
पहोंच्या, अने भगवाननी आज्ञा मुजब उत्तम मुहूर्तमां सौथी पहेलां मांगलिक कार्य
करीने अयोध्यापुरीनी वचमां मोटा जिनमंदिरनी रचना करी, तथा चारे दिशामां पण
एकेक जिनमंदिरनी रचना करी. पछी सुकोशल, अवंती, वत्स, पंचाल, मालव, रम्यक,
कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, काश्मीर, कच्छ, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, विदर्भ, कुरुजांगल,
कोंकण, वनवास, आंध्र, कर्णाट, कौशल, केरल, शूरसेन, विदेह, सिन्धु, गांधार, कम्बोज,
केकय वगेरे अनेक देशोनी तथा गाम–नगरनी रचना करी. विजयार्धपर्वतथी मांडीने
दक्षिण छेडामां लवणसमुद्र सुधीना ते देशोमां प्रजाजनोने वसावीने राजव्यवस्था करी.
ईन्द्रे पुर–नगरनी रचना करी तेथी ‘पुरंदर’ एवुं तेनुं नाम सार्थक थयुं.
भगवाने प्रजाजनोने शस्त्र–लेखनी–विद्या–वेपार–खेती अने शिल्प ए छ कार्यो
द्वारा आजीविकानो उपदेश आप्यो, केमके भगवान हजी सरागी हता, वीतराग न हता.
आ रीते भगवाने छ–कर्मना उपदेशवडे कर्मयुगनो प्रारंभ कर्यो तेथी तेओ ‘कृतयुग’
अथवा ‘युगकर्ता’ कहेवाया, ने तेओ ज सृष्टिना ब्रह्मा कहेवाया. ए सिवाय बीजुं कोई
ब्रह्मा के सृष्टिकर्ता नथी. आ बधी रचना अषाड वद एकमना दिवसे थई. आ रचना
वडे प्रजानुं पालन कर्युं तेथी भगवान ‘प्रजापति’ कहेवाया. प्रजा सुखथी रहेवा लागी.
थोडा वखत पछी ईन्द्र वगेरे देवोए आवीने भगवानने सम्राटपदे स्थाप्या ने
मोटो राज्याभिषेक कर्यो; तेथी आखी पृथ्वी प्रभावित थई. ते वखते अयोध्यापुरीनी
शोभा अद्भुत हती. रत्नोनी रंगोळीथी शोभता श्रेष्ठ आनंद–मंडपमां, तीर्थोना पवित्र
जळथी भरेला सुवर्णकळशवडे भगवाननो अभिषेक कर्यो. हिमवत् पर्वत परथी गंगा
अने सिंधु नदीना जळनी धारा पडती हती तेने वच्चेथी ज, (जमीन पर पड्या
पहेलां) झीलीने तेनावडे अभिषेक थयो हतो. श्री–ह्री वगेरे देवीओ पण पद्म वगेरे
सरोवरमांथी पवित्र पाणी लावी हती; लवणसमुद्रनुं श्रेष्ठ जळ तेमज नंदीश्वरद्वीपनी
नंदोत्तरा वगेरे वावडीनुं, क्षीरसमुद्रनुं, नंदीश्वरसमुद्रनुं, ने असंख्य योजन दूर एवा
स्वयंभूरमणसमुद्रनुं पण जळ सोनाना दिव्यकळशोमां भरी भरीने देवो लाव्या हता, ने
तेनावडे जगतगुरु भगवान ऋषभदेवनो अभिषेक कर्यो हतो. भगवाननुं शरीर तो
स्वयं पवित्र हतुं; एटले ते जळवडे भगवाननुं शरीर पवित्र