Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : १प :
न्होतुं थयुं परंतु भगवानना शरीरना स्पर्शनवडे ते जळ पवित्र बन्युं हतुं. आ
ऋषभदेव बधा राजाओमां सौथी श्रेष्ठ राजा छे एम स्वीकारीने नाभिराजा वगेरे मोटा
मोटा राजाओए एक साथे अभिषेक कर्यो, तेमज अयोध्याना प्रजाजनोए पण
सरयूनदीनुं जळ भरीने भगवानना चरणोनो अभिषेक कर्यो. भरतक्षेत्रना
व्यन्तरदेवोना ईन्द्रोए (मागधदेव वगेरेए) पण ‘आ भगवान अमारा देशना स्वामी
छे’ एम समजीने प्रीतिथी अभिषेक कर्यो; अभिषेक पछी स्वर्गलोकथी लावेला
वस्त्राभूषण पहेराव्या, अने नाभिराजाए पोताना मस्तक परनो महामुगट उतारीने
भगवानना मस्तके पहेराव्यो; ने ईन्द्रे ‘आनंद’ नामना नाटकवडे पोतानो आनंद
व्यक्त कर्यो.
भगवान ऋषभ–राजाए प्रजानुं सारी रीते पालन कर्युं ने दरेक वर्ग पोतपोताने
योग्य कार्योद्वारा आजीविका करे एवा नियम बांध्या, तथा प्रजाना योग तथा क्षेमनी
(एटले के नवीन वस्तुनी प्राप्ति तथा मळेली वस्तुनुं रक्षण–तेनी) व्यवस्था करी; ने
‘हा! मा! तथा धिक्’ एवा दंडनी व्यवस्था करी. तथा हरि (हरिवंश) अकंपन
(नाथवंश) काश्यप (उग्रवंश) अने सोमप्रभ (कुरुवंश)–ए चार क्षत्रियोने
महामांडलिक राजा बनाव्या, ने, तेमनी नीचे बीजा चार हजार राजाओ हता. भगवाने
पोताना पुत्रोने पण यथायोग्य महेल, सवारी वगेरे संपत्ति आपी. ते वखते भगवाने
लोकोने शेरडीनारसनो (ईक्षु–रसनो) संग्रह करवानुं कह्युं तेथी तेओ ईक्ष्वाकु कहेवाया.
भगवान ऋषभदेवनो राज्यकाळ ६३ लाख पूर्वनो हतो; पुत्र–पौत्रोनी साथे
एटलो लांबो काळ जोतजोतामां वीती गयो. ईन्द्र तेमने माटे स्वर्गमांथी पुण्यसामग्री
मोकलतो हतो.–आ संसारमां पुण्यथी शुं प्राप्त नथी थतुं? पुण्य वगर सुखसामग्री
मळती नथी. दान, संयम, क्षमा, सन्तोष वगेरे शुभ चेष्टावडे पुण्यनी प्राप्ति थाय छे.
संसारमां तीर्थंकरपद सुधीना उत्तम पदनी प्राप्ति पुण्य वडे ज थाय छे. हे पंडितजनो!
श्रेष्ठ सुखनी प्राप्ति अर्थे तमे धर्मनुं सेवन करो. वास्तविक सुखनी प्राप्ति थवी ते धर्मनुं
ज फळ छे. हे सुबुद्धिमान! तमे सुख चाहता हो तो श्रेष्ठ मुनिओने भक्तिथी दान दो,
तीर्थंकरोने नमस्कार करीने तेमनी पूजा करो, शील–व्रतोनुं पालन करो अने पर्वना
दिवसोमां उपवासादि करो, शास्त्रस्वाध्याय करो...साधर्मीनी सेवा करो.