Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : फागण : २४९३
सेंकडो राजाओ साथे भगवानना तपकल्याणकनो उत्सव जोवा माटे पाछळ–पाछळ जई
रह्या हता. सम्राट भरत अने तेना भाईओ पण मोटी विभूति लईने भगवाननी
पाछळ जता हता. भगवान आकाशमां एटले ऊंचे गमन करता हता के ज्यांथी लोको
तेमने बराबर जोई शके.
अयोध्याथी थोडे दूर सिद्धार्थक नामना वनमां आवीने एक पवित्र शिला उपर
प्रभु बिराज्या. चन्द्रकान्तमणिनी ए शिला एवी शोभती हती–जाणे के सिद्धशिला ज
दीक्षाकल्याणक जोवा माटे नीचे ऊतरी होय! एना पर आश्चर्यकारी मंडप अने रत्नोनी
रंगोळी हती. ए शिला जोतां, जन्माभिषेक वखतनी पांडुकशिलानी शोभा भगवानने
याद आवी. भगवान जगतना बंधु होवा छतां स्नेहबंधनथी रहित हता. दीक्षा पहेलां
भगवाने देव–मनुष्योनी सभाने योग्य उपदेशवडे संबोधीने प्रसन्न करी. अने दीक्षा
माटे पहेलां जो के बंधुवर्गने पूछ्युं हतुं, तोपण अत्यारे फरीने गंभीरवाणीथी पूछीने
संमति लीधी.
कोलाहल दूर थयो ने एकदम शान्ति प्रसरी गई,
त्यारे गंभीर मंगलनाद साथे भगवाने अन्तरंग अने
बहिरंग परिग्रह छोडी दीधो. आत्मानी, देवोनी अने
सिद्धोनी साक्षीपूर्वक समस्त परिग्रह छोडीने भगवान
मुनि थया, पूर्वदिशासन्मुख पद्मासन लगावी,
सिद्धपरमेष्ठीने नमस्कार करीने, पंचमुष्ठिथी केशलोच
कर्यो. दिगंबर रूपधारक भगवान जिनदीक्षा लईने समस्त
पापोथी विरक्त थया ने समभावरूप चारित्र (सामायिक) धारण कर्युं. जे तिथिए
जन्म्या ते ज तिथिए, फागण वद नवमीनी सांजे भगवाने मुनिदशा धारण करी.
भरतक्षेत्रना आद्यमुनिराज एवा श्री ऋषभमुनिराजने नमस्कार हो.
बाह्यप्रवृत्ति वडे तारी अधिकता नथी,
तुं जेटलो अंदर समा, तेटली तारी अधिकता छे.