: फागण : २४९३ आत्मधर्म : २३ :
जीवने नथी कंई ध्रुव; ध्रुव उपयोग–आत्मक जीव छे
माह सुद दसमे जीपअकस्मातमां ईंदोरना बे भाईओना स्वर्गवासनी
अरे, आ जीवन तो अनित्य छे–क्षणभंगुर छे; कई क्षणे एनो वियोग थशे!
–ए गवानना ज्ञानमां भास्युं छे, तेने फेरववा कोई समर्थ नथी. सूरज ऊगे छे
ते अस्त थाय छे; तेम जन्म ते मरण सहित ज छे. जुओने, आजे ज
क्षणभंगुरतानो बनाव बनी गयो. अनित्य संसारमां जीवने कोई शरण नथी,
उपयोगस्वरूप एनो पोतानो ध्रुव आत्मा ज एनुं शरण छे. आयुष्य पूरुं थाय
त्यां ईन्द्रनो देह पण क्षणमां छूटी जाय छे; ८४००० अंगरक्षक देवोनी टूकडी पण
एना मरणने रोकी शकती नथी. शरण तो ज्ञान छे, ते ज्ञानमां मरण नथी,
ज्ञानमां अकस्मात नथी. आवा ज्ञानस्वरूप आत्माने ओळख भाई! तारुं तो
ज्ञान छे. शरीर तारुं नथी. राग पण तारुं स्थायी टकतुं स्वरूप नथी, तेने टकावी
राखवा मांगे–ते टकी शके नहि. ज्ञानना स्वानुभव वडे ज्ञानी पर द्रव्यना हर्ष–
शोकने छोडे छे, जगतना पदार्थोना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव केवळज्ञानमां जणाय
छे, केवळज्ञाननी आणने कोई लोपी शकतुं नथी, –आवी जगतनी राजनीति छे.
पाणीमां ऊठेलो परपोटो शुं कायम रहेशे? नहीं. –तेम आ विकार अने शरीरादि
संयोग ते तो परपोटा जेवा छे, ते क्षणिक छे, तेमां जीवनुं साचुं जीवन नथी.
पारस–भगवानने आजे केवळज्ञान थयुं, ते ज आत्मानुं खरूं जीवन छे. शांत–
वीतराग स्वरूप आत्मा ज आ जगतमां सार छे, बाकी तो बधुंय असार–असार
छे. बापु! सर्वज्ञदेवे तारो आत्मवैभव खुल्लो मूक््यो, ते आत्मवैभवने तुं जाण.
बाकी तो जगतमां बधुं असार छे. ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरीने बीजी क्षणे सातमी
नरके गयो, त्यां महा दुःख पामे छे, तेने चक्रवर्तीनो वैभव नरके जतां रोकी न
शक््यो, शरण तो पोतानो आत्मवैभव छे, अनंतगुणरूप आत्मवैभव ते ज
पोतानो साचो वैभव छे. आम जाणी जगत प्रत्ये वैराग करीने आत्मानुं स्वरूप
चिंतववुं जोईए. तो शोक रहे नहीं, ने आत्मानुं कल्याण थाय.